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उत्त.
श्रीवीतरागने नमस्कार करूंडं.
| नमः सिद्ध श्रीवीतरागायनमः ॥ संयोगाविष्पमुक्कस्स ॥
विविनयने
पा० प्रगट करीस्य अनुक्रमे
नि० निरवद्यभि का प्रवर्तयानो स्वभाव बेजेतेने नि कहिए एवा साधुनो. भिस्कूष्णो ॥
नि० तह
दृष्टीनें
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संग बाह्य अभ्यंतरसंजोग बाह्यते मातपिताप्रमुष अभ्यंतर ते मिथ्यात्तविषयादिक सं० संजोगधी वि० विशेष मूकाएगा बे
गुरुनी o समीप रहे बानी. का करहार
२१
कहीस.
विएयं पानुकरिस्सामि ।। अणुपुविं
इं० शरीरनीचेष्टाइ करीयामि ते इंगित
इंगियागारं माझानी हतनी गुरु गुरुनी
दृष्टीने
कराहार
उ
निदेसकरे ॥ गुरुरणमुववायकारए |
त तेवी नितशिष्य इ० इम कहिए
चइ ॥ २ ॥
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म० नथी आगार जेने विषे ते एागार
॥ प्रागारस्स सुसांभसमुज कहि- प्रा० गुरू ताथका १ नीमाझाने
सोहमे ॥ १ ॥ आशा
सं० शरीरना भावी मुडाई
करी जालि मननो अभिप्राय एवं जाएापो करी सहि संपन्ने ॥
समीपरवान
सेविशिएत्तिषु
प० प्रत्यनीकं बैरी
करणहार
का. करणहार सरो.
आएणानिद्देसकरे ॥ गुरुणमडर्णुक्वायकारए ॥ परिणि ॥
प्र.१