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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उप चिं वाभा. ४ १०७४ ॥ मूलम् ॥ - ठठे मुणी जं खिवइ । कम्मणा तितिएण सेसेण ॥ होइ लवसत्तमो वा | जहन्न जाइ सोहम्मे ॥ ४५ ॥ व्याख्या वा इत्युकृष्टफलस्यैव पक्षांतरसूचनार्थः, षष्टेनोपवासद्वयेन मुनिर्निर्ग्रथो यत्कर्म क्षिपति निर्जरयति, तावन्मात्रेण कर्मणा शेषेणायुषः समासत्वादनिर्जीर्णेन स साधुर्लव सप्तमसुरो जवति पूर्वजवे सिद्धिगमनयोग्य विशुद्वाध्यवसायवानपि सतयव मुष्टिलवनमात्रेण कालेन न्युनायुष्कतया सिद्ध्यगमनाद्योऽनुत्तर विमानेषूत्पद्यते, स देवः समयजाषया लवसप्तम उच्यते तथा च श्रीविवाह प्रज्ञप्तिः — अस्थि णं जंते लवसत्तमा देवा हंता अस्थि से केहेणं जंते एवं बुच्चइ लवसत्तमा देवा ? गोमा ! से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे जाव निजण सिप्पो गए सालीण वा, वीहीण वा, जाव जवावा, पक्काणं परियायाणं हरियाणं तिरकेणं नवपजएणं सिपणं परिसाह - रिय साहरिय जावइणामेव तिकटु सत्तलवे लविकाजोइणं गोयमा ! तेसिंणं देवाएं एव इयं कालं या पहुष्पंते तेषं ते देवा तेणं एव जवगहणेणं सिज्छंता जाव अंतं करंता, से ते गोयमा ! एवं वुच्चइ लवसत्तमा देवा. अणुत्तरोववाश्याणं जंते देवा केवइएणं क For Private and Personal Use Only
SR No.020847
Book TitleUpdesh Chintamani Satik Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1922
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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