SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 609
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६०२. . तत्त्वार्यसूचे . अत्रा-ऽसुराणां संक्लिष्ट इति विशेषणेन न सर्वेऽसुरा नारकाणां दुःखमुत्पादयन्ति, अपितु-कतिपया एव परमाधार्मिक संज्ञकाः-अम्बाऽम्बरीषादयोऽसुरा इतिज्ञाप्यते, तेन-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा पृथिवीषु तिसृष्वेव संक्लिष्टासुरा नारकाणां बाधाहेतवो भवन्ति । न तु-तृतीयपृथिवीतः परासु पङ्कप्रभाप्रभृति तमस्तमःप्रभापर्यन्तपृथिवीषु ते खलु तेषां बाधाहेतवो भवन्ति । चकारेण-सुत्रप्ताऽयोरसपायननिष्टप्ताऽयः स्तम्भाश्लेषणकूट शाल्मल्यारोहणा-वतारणायोधनाभिधातवासीारतक्षणक्षारतप्ततैलावसेचनाऽयः कुम्भीपाकाऽम्बरीष भर्जन वैतरणी मज्जन यन्त्रनिष्पीडनादिभिश्च नारकाणां दुःख समुत्पादयन्ति--परस्परं ते नारकाः इति गृह्यते । एवम्-छेदनभेदनादिभिः खण्डीकृतशरीराणामपि तेषां नारकाणां नाऽकाले मरणं भवति, तेषामनपवायुष्कत्वात् इतिभावः असुरशब्दव्युत्पत्तिस्तु-देवगतिनामकर्मविकल्पस्या-ऽसुरत्वसंवर्तनस्य कर्मण उदयाद् अस्यन्ति-क्षिपन्ति परान् इत्यसुरा अवगन्तब्याः इति ॥सूत्र-१५॥ सूत्र में 'संक्लिष्ट' विशेषण का प्रयोग करके यह प्रदर्शित किया गया है कि सभी असुर नारकों को पीड़ा नहीं पहुँचाते अपितु कतिपय परमाधार्मिक नाम के अम्ब, अम्बरीष आदि असुर ही पीड़ा देते हैं। संक्लिष्ट असुर रत्नप्रभा, शर्कगप्रभा और वालुकाप्रभा इन तीन भूमियों में ही नारक जीवों की बाधा के निमित्त बनते हैं; इनसे आगे की पंकप्रभा आदि पृथ्वियों में वे बाधा नहीं पहुँचाते; क्योंकि तीसरी पृथ्वी से आगे उनका गमन होता हो नहीं है। ये असुरकुमार नारक जीवों को अत्यन्त तपाये हुए लोहरस का पान कराते हैं, खूब तपे हुए लोहमय स्तंभों का आलिंगन करवाते हैं, कूटशाल्मली वृक्ष पर-जिसके पत्ते तलबार के समान तीखे होते हैं, चढाते-उतारते हैं, लोहे के घनों की मार मारते हैं, वसूला छुरा आदि से छीलते हैं, उनके घावों पर तपा हुआ नमकीन तेल छिड़कते हैं, लोहमय कुंभियों में उन्हें पकाते हैं, भाड़ में भूनते हैं, वैतरणी नामक नदी में डुवाते हैं, यंत्रों में पोल देते हैं; इत्यादि अनेक तरीकों से नारकों को वे दुःख उत्पन्न करते हैं। नारक जीवों के शरीर का छेदन-भेदन करने पर भी और शरीर के खण्ड-खण्ड कर देने पर भी अकाल में उनकी मृत्यु नहीं होती । वे अनपवर्त्य आयुष्य वाले होते हैं । असुर शब्द की व्युत्पत्ति यों समझना चाहिए-असुरत्व उत्पन्न करने वाले देवगति नाम कर्म के एक भेद के उदय से जो दूसरों को अस्यन्ति-क्षिपन्ति अर्थात् दुःख में डालते हैं, वे 'असुर' कहलाते हैं ॥१५॥
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy