SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 568
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - वीपिकानियुक्तिश्च अ० ५ सू. ३ भानावरणदर्शनावरणयोर्यन्धकारणनिरूपणम् ५६१ ___ एवं-पञ्चविधमन्तरायकर्माऽपि पापमुच्यते, दानान्तराय-लाभान्तराय-भोगान्तरायोपभोगान्तराय-वीर्यान्तरायमेदात् पञ्चविधमन्तरायकर्म प्रजप्तम् । तथाचोक्तं व्याख्याप्रज्ञप्तौ भगवतीसूत्रे-८-शतके ९-उद्देशके-"दाणंतराएणं-लाभंतराएणं-भोगतराएणं-उवभोगंतराएणं-वीरियंतराएणं, अंतराइयकम्मा सरीरप्पओगबंधे." इति ।। दानान्तरायेण-लाभान्तरायेण-भोगान्तरायेण-उपभोगान्तरायेण-वीर्यान्तरायेणाऽन्तरायकर्म शरीरप्रयोगबन्धः इति ॥सूत्र ॥२॥ मूलम्---णाणदंसणाणं पडिणीययाइहिं णाणदंसणावरणं ॥ सूत्र ३॥ छाया-शानदर्शनयोः प्रत्यनीकतादिभिनिदर्शनावरणम् ॥ सूत्र-३॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्रे पापकर्मणों द्वयधिकाशीतिप्रकारतया भोगः प्ररूपितः साम्प्रतं ज्ञानावरणदर्शनावरणयोर्बन्धकारणानि प्रतिपादयितुमाह--"णाणदंसणाणं" इत्यादि । ... 'णाणदंसणाणं' ज्ञानदर्शनयोः ज्ञानस्य दर्शनस्य च 'पडिणीययाइहि' प्रत्यनीकतादिभिः अत्रादिशब्दात् निह्नवता, अन्तरायः प्रद्वेषः अत्याशातना, विसंवादनायोगः एषां संग्रह, एतैः षभिः कारणै ‘णाणदंसणावरणं', ज्ञानावरणं दर्शनावरणं च कर्म बध्यते ॥३ इसी प्रकार पाँच अन्तराय कर्म भी पाप कर्म हैं । दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय, यह पाँच प्रकार का अन्तराय कम है। ___ भगवती (व्याख्याप्रज्ञाप्त) सूत्र में आठवें शतक के नौवे उद्देशक में कहा है-दान में अन्तराय (विघ्न-बाधा) डालने से, लाभ में अन्तराय डालने से, भोग में अन्तराय डालने से, उपभोग में अन्तराय डालने से और वीर्य में अन्तराय डालने से अन्तराय कर्म का बन्धः होता है ॥२॥ सूत्रार्थ- 'णाणदंसणाणं' इत्यादि ॥ सूत्र ३॥ ज्ञान और दर्शन की प्रत्यनीकता आदि से ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का बंध होता है ।सूत्र-३॥ तत्त्वार्थदीपिका--पूर्वसूत्र में पापकर्म बयासी प्रकार से भोगा जाता है यह बताया गया है, अब ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मबन्ध के कारण बताते हैं---'णाण दसणाणं' इत्यादि । _ 'णाणदंसणाणं' -.. ज्ञान और दर्शन की प्रत्यनीकता आदि करने से पंचविध ज्ञाना वरण और नवविध दर्शनावरण कर्म का बंध होता है । प्रत्यनीकता आदि, शब्द से भगवती सूत्र के आठवें शतक के नौवे उद्देशे में कहे हुए पदों का यहाँ ग्रहण करना चाहिये, वे इस प्रकार हैं-ज्ञान और दर्शन प्रत्यनीकता १। निह्नवता २। अन्तराय ३। प्रद्वेष । अत्माशातना ५। और विसंवादनयोग ६। इन छह कारणों से ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का बन्ध होता है ॥ सू० ३॥ ७१ ... :
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy