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________________ दीपिकनियुक्तिश्चम०४ सू०२८ भवनपत्यादिदेवानामायुः प्रभावादेन्यूनाधिकत्वम् ५४३ विषयभोगेन्द्रादि स्वरूपं प्ररूपितम् , सम्प्रति-तेषां सर्वेषामपि देवानां पूर्वपूर्वदेवापेक्षया-उत्तरोत्तरदेवानां खलु-आयुः-प्रभाव-सुख-लेश्या विशुद्धि-न्द्रिया-ऽवधिज्ञानविषयाअधिकाः, गतिशरीरप्रमाणपरिग्रहाभिमानाश्च न्यूना मवन्तीति प्रतिपादयितुमाह-- ___"देवाणं उत्सरमुत्तरआउप्पभावसुहज्जुइ लेस्साविमुद्धिंदियओहिविसया अहिया, गइसरीरपरिग्गहाभिमाणा हीणा-" इति- । देवानाम्-असुरकुमारादि भवनपति-किन्नरादिवानव्यन्तर-चन्द्रसूर्यादि ज्योतिष्क-सौधर्मेशानादि सर्वार्थसिद्धपर्यन्तवैमानिकदेवानाम् पूर्वपूर्वदेवापेक्षया उत्तरोत्तरं खलु---आयु:-स्थिंतिरूपम्, प्रभावोऽनुमावः, सुखम् , द्युतिः-कान्तिः, लेश्याविशुद्धि:-कृष्णनीलकापोतपीतपद्मशुक्ललेश्याविशुद्धि-अवधिविषयः इन्द्रियविषयश्वेत्येते सप्तोसरोत्तरदेवानामधिका भवन्ति । तथाचोत्तरोत्तरदेवाः आयुष्य रूप स्थितितोऽधिकाः पूर्वपूर्वदेवापेक्षया भवन्ति । एवम्-निग्रहाऽनुग्रहवैक्रियपराभियोगादिरूपप्रभावतोऽपि पूर्वपूर्वदेवापेक्षया उत्तरोत्तरदेवा मंधिका भवन्ति । एवं सुखतः, कान्तिरूपबुसितः, इन्द्रियविषयतः, अवधिज्ञानविषयतश्चोत्तरोत्तरदेवाः पूर्वपूर्वदेवापेक्षयाऽधिका भवन्ति । एवं सुखतः, कान्तिरूपातितः, लेश्यांविशुद्धिसः इन्द्रिमविषयः, अवधिज्ञानविषयतश्चोत्तरोत्तरदेवाः पूर्वपूर्वदेवानां दूरांविष्ट विषयोपलब्धौ यदइंन्द्रियपाटवं मवंति, तदपेक्षया-प्रकृष्टतरगुणत्वा-दल्पतरसंक्लेशत्वा चोत्तरोत्तरदेवानामधिकं भवति । योग्य विषयभोग, उपभोग तथा इन्द्र आदि स्वरूप का प्ररूपण किया गया, अब यह निलपण करते हैं कि पूर्वोक्त सब देवों में, पहले वालों की अपेक्षा आगे वालों में आयु, प्रभाष, सुख, लेश्याविशुद्धि, इन्द्रियविषय और अबधिज्ञान का विषय अधिक-अधिक होता है किन्तु गति, शरीरप्रमाण, परिग्रह और अभिमान कम होता है -- असुरकुमार आदि भवनपति, किन्नर आदि बानव्यन्तर, चन्द्र सूर्य आदि ज्योतिष्क और सौधर्म-ईशान से लेकर सर्वार्थसिद्ध पर्यन्त वैमानिक देवों में पूर्व-पूर्व देवों की अपेक्षा उत्तरोत्तर अर्थात् आगे-आगे के देवों में आयु अर्थात् स्थिति, प्रभाव अर्थात् अनुभाव, सुख, धुति, अर्थात् कान्ति, लेश्या विशुद्धि अर्थात् कृष्ण नील कापोत पीत पद्म और शुक्ल लेश्या को शुद्धि, इन्द्रियों का विषय और अवधिज्ञान का विषय अधिक-अधिक होता है । इस प्रकार पहले-पहले के देवों की अपेक्षा मागे-आगे के देव आयु में अधिक हैं। निग्रह करना-अनुग्रह करना, विक्रिया करना तथा पराभियोग करना, यह सब प्रभाव कहलाता है । पूर्व-पूर्व के देवों की अपेक्षा उत्तरोत्तर देवों में प्रभाव अधिक होता है । इसी प्रकार, सुख, क्रान्ति, लेश्या की 'विशुद्धता, इन्द्रियों द्वारा अपने-अपने विषय को ग्रहण करने का सामर्थ्य और अवधिज्ञान, यह सब भी आगे-आगे के देवों में पूर्व-पूर्व देवों की अपेक्षा अधिक होते हैं । तात्पर्य यह है कि पूर्ववर्ती देव अपनी इन्द्रियों से जितनी दूरी की
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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