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________________ www दीपिकानियुक्तिश्च अ० ४ सू. २६ भवनपत्यादि देवानां विषयसुखभोगप्रकारनिरूपणम् ५१५ चारणं प्रवीचारो मैथुनोपसेवनं येषां ते कायपरिचारणाः, ते खलु संक्लिष्टकर्माणो मनुष्यवदेव मैथुनसुखमनुभवन्तस्तीवानुशयाः कायसंक्लेशजन्यं सर्वाङ्गीणं स्पर्शसुखमवाप्य परमां प्रीतिमुपलभन्ते तेष्वेव भवनवासिवानव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानकल्पेषु जन्मना देवीनामुत्पादात् , न तु-ततःपरतः___अतएव ते सदेवीकाः सप्रवीचाराश्च भवन्ति सौधर्मेशानौ वर्जयित्वाऽच्युतान्ताः सनत्कुमारमाहेन्द्र-ब्रह्मलोक-लान्तक-महाशुक्र-सहस्त्रारा-ssनत-प्राणता-ऽऽरणा ऽच्युताः दशवैमानिकाः कल्पोपपन्नका देवास्तु स्पर्शरूप-शब्द-मनःपरिचारणाः, स्पर्श-रूप-शब्द-मनःसु परिचारणं प्रवीचारो विषयभोगोपभोगो येषां ते स्पर्शरूपशब्दमनःपरिचारणा स्तथाविधा भवन्ति । तत्र-सनत्कुमार-माहेन्द्रकल्पयो र्देवान् मैथुनसुखाभिलाषिणः प्रादुर्भूतादरान अवबुध्याऽनाहूताः सत्योऽपि सौधर्मेशानदेव्यः स्वयमुद्यम्योपस्थिता भवन्ति ब्रह्मलोक-लान्तकस्थदेवास्तुतथाविधमैथुनसुखप्रेप्सून् बुद्ध्वादेव्य स्तत्र स्वयमुपस्थाय दिव्यानि सर्वाङ्गसुन्दराणि शृङ्गार-हावभाव विलासोल्लासपूर्णपरम-रमणीयवेष-भूषा रूपाणि प्रदर्शयन्ति. । तानि चाऽवलोक्यैव ते देवा निवृत्तकामभोगेच्छाः सन्तः परमां प्रीतिमासादयन्ति महाशुक्रसहस्रारकल्पवासिनो देवान् समुत्पन्नकामभोगेच्छान् विदित्वा तास्ता देव्यस्तावत् श्रुतिसुखजनकान् मनोहारिसङ्गीता-ऽऽभरण-नूपुर-मञ्जीरादिक्वणनमिश्रितमधुरहासोल्लासवचनालापानुदीरप्रवीचार होते हैं, अर्थात् शरीर से मैथुनक्रिया करते हैं । वे संक्लिष्ट कर्मों वाले होते हैं, अतः मनुष्य के समान मैंथुनसुख का अनुभव करते हुए, तीन आशय वाले हो कर शारीरिक संक्लेश से उत्पन्न स्पर्शसुख को प्राप्त करके प्रीति प्राप्त करते हैं। इन्हीं भवनवासियों, वानव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और सौधर्म तथा ईशान कल्प में ही देवियां (उत्पन्न) होती हैं। दूसरे कल्प से ऊपर देवियां उत्पन्न नहीं होती हैं । अतएव इन देवलोकों को सदेवीक और सप्रवीचार कहते हैं । सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत- ये दस कल्पोपपन्न वैमानिक देव स्पर्श, रूप शब्द और मन से प्रवीचार अर्थात् मैथुनसेवन करते हैं। सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प में देवियां अपने देवोंको मैथुन-सुख का अभिलाषी जान कर तथा अपने प्रति आदर उत्पन्न हुआ समझकर विना बुलाये ही स्वयं उपस्थित हो जाती हैं। ब्रह्मलोक और लान्तक कल्प में देवियाँ जब अपने देवोको मैथुनसुख का इच्छुक जानती है तो वे स्वयं उपस्थित होकर अपने दिव्य, सर्वोगसुन्दर हाव-भाव-विलास-उल्लास से पूर्ण परम रमणीय वेष-भूषा एवं रूप को प्रदर्शित करती है । उसे देखकर उन देवों की कामेच्छा शान्त हो जाती है और वे अतिशय प्रीति का अनुभव करते हैं। ___ महाशुक्र और सहस्रार कल्प के देवों को जब कामेच्छा उत्पन्न होती है तो उनकी नियोगिनी देवियाँ यह जान कर श्रोत्रों को सुख पहुँचाने वाले, मनोहर संगीत का गान करती
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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