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________________ तत्स्वार्थसूत्रे अपेक्ष्य स्थितौ समश्रेण्यां तदुपरि-असंख्यातकोटिकोटियोजनान्यतिक्रम्यात्र तृतीय-चतुर्थी सनत्कुमार माहेन्द्रदेवलोको अपि प्रत्येकमर्द्धचन्द्राकारौ युगलरूपे दक्षिणोत्तरमपेक्ष्य स्थितौ ४ । तदुपरि असंख्यातयोजनातिकमे ब्रह्मदेवलोको वर्त्तते तत्र च लोकान्तिकदेवा जिनेन्द्रजन्मादिमहोत्सवविलोकनोत्सुकाः शुभाध्यवसायप्राया भक्तिश्रवणतावशीकृतचित्ता निवसन्ति । अथ ब्रह्मलोकादारभ्याष्टमसहस्रारदेवलोकपर्यन्तं चत्वारो देवलोका एकैकस्योपर्युपरि असंख्यातयोजनान्तरेण वर्तन्ते, तथाहि सनत्कुमार-माहेन्द्रदेवलोकयुगलादुपरि असंख्यातयोजनान्यतिक्रम्यात्र पञ्चमो ब्रह्मदेवलोको वर्तते ५ । तदुपरि-असंख्यातकोटियोजनातिक्रमे षष्ठो लान्तकदेवलोको वर्तते ६, तदुपरि असंख्यातयोजनातिक्रमे सप्तमो महाशुक्रदेवलोको वर्तते ७ ॥ तदुपरि असंख्यातयोजनातिक्रमेऽष्टमः सहस्त्रारदेवलोको वर्तते ८। इति । अथ-तदुपरि असंख्यातयोजनातिक्रमे नवमदशमौ आनतप्राणतदेवलोकौ अपि प्रथमद्वितीयदेवलोकवत् प्रत्येकमर्द्धचन्द्राकारौ युगलदक्षिणोत्तरभागमपेक्ष्य स्थितौ समश्रेण्यां १० । तदुपरि असंख्यातयोजनातिक्रमे एकादश-द्वादशौ आरणाच्युत-देवलोको. एतौ द्वावपि पूर्ववत् प्रत्येकमर्द्धचन्द्राकारौ युगलरूपेण समश्रेण्यां स्थितौ ११-१२ । इति द्वादशदेवलोकस्थितिस्वरूपम् । योजनजाने पर यहां तीसरा और चौथा सनत्कुमार माहेन्द्र ये दो देवलोक भी प्रत्येक अर्द्धचन्द्राकार युगल रूप से दक्षिणोत्तर भाग को लेकर समश्रेणि में व्यवस्थित हैं ३-४। इनके ऊपर असंख्यात योजन जाने पर यहां ब्रह्म देव लोक हैं। इस ब्रह्म देव लोक में लोकान्तक देव रहते हैं वे जिनेन्द्र जन्मादि के महोत्सव को देखने में उत्सुक शुभ अध्यवसाय वाले भक्ति भाव में वशीकृतचित्त वाले होते हैं। अब ब्रह्मलोक से लेकर आठवें सहस्रार देव लोक पर्यन्त चार देव लोक एक एक के ऊपर असंख्यात असंख्यात योजनों के अन्तर से व्यवस्थित हैं, जैसेसनत्कुमार और माहेन्द्र इन युगल देव लोंको से ऊपर असंख्यात योजनों के लांधने पर यहाँ पाँचवों ब्रह्म देव लोक है ५। उसके ऊपर असंख्यात योजन जाने पर छठा लान्तक देवलोक है ६ । उसके ऊपर असंख्यात योजन जाने पर सातवाँ महाशुक्र देव लोक है ७) उसके ऊपर असंख्यात योजन जाने पर आठवाँ सहस्रार देवलोक है ८ । इस के ऊपर असंख्यात योजन जाने पर नौवाँ दसवाँ आनत और प्राणत देव लोंक भी पहले दूसरे सौधर्म ईशान की तरह प्रत्येक अर्द्धचन्द्राकार युगल रूप से दक्षिणोत्तर भाग को लेकर समश्रेणि में स्थित है ८-१० । इसी प्रकार इनके ऊपर असंख्यात योजन जाने पर ग्यारहवाँ और बारहवाँ आरण और अच्युत देवलोक, ये दोनों देव लोक भी पूर्व के आनत प्राणत की तरह प्रत्येक अर्ध चन्द्राकार युगल रूप से दक्षिणोत्तर भाग को लेकर समश्रेणि में स्थित हैं ११-१२ । यह बारह देवलोक की स्थिति का स्वरूप है।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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