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________________ ४७२२ तत्त्वार्थसूत्रे ग्भवति लोकेऽश्रद्धेयवचनश्च संजायते एवमैहिकं प्रत्यवायजन्यम् असत्यभाषणप्रयुक्तं जिह्वाच्छेदनश्रोत्र-नासिकाच्छेदनादिकं प्रतिगर्हितं फलं लभते, नारकादितीव्रयातनादुःखञ्चाऽऽमुष्मिकं फलं लभते एवमनृतभाषणजनितदुःखयुक्तेभ्यो बद्धवैरेभ्यो जिह्वाच्छेदनादि पूर्वोक्तदोषाऽपेक्षयाऽपि यातना विशेषानधिकान् वधबन्धादीन् दुःखहेतून् प्राप्नोति तीव्राशयो जन स्तीवस्थित्यनुभावमेव कर्मो-- पादत्ते-प्रेत्यचा-ऽशुभां तीव्रनारकादियातनामासदयति, तस्मादनृतभाषणस्यैवंविधविषमफलविपाकमात्मन्यनुभावयन् “तव्युपरमःश्रेयान्" इतिरीत्या विचार्या-ऽनृतभाषणाद् व्युपरतो भवति, __यथाच प्राणातिपाता ऽसत्यभाषणाऽनुष्ठायिनः प्रत्यवाययुक्ता भवन्ति, एवं परद्रव्यहरणप्रसक्तमतिरपि स्तेनः सर्वस्योद्वेजको भवति अपहियमाणद्रव्यादिधनस्वामिन उद्वेगं समुत्पादयति, [ तेन] इहलोकेऽन्यद्रव्यापहरणजन्यताडनपीडनकशाद्यभिघातनिगडशृंखलादि बन्धनकर-चरण-श्रोत्र-नासिको ष्ठच्छेदनभेदनसर्वस्वहरणादिकं प्रतिलभते, प्रेत्य च नारकादितीवयातनागतिं प्राप्नोति, तस्मात्-स्ते- याव्युपरमः श्रेयान् इति भावयन चौर्याद व्युपरतो भवति, यथा-खलु प्राणातिपाताऽसत्यभाषणस्तेयाऽनुष्ठायिनः प्रचुरान् प्रत्यवायान् पाप्नोति । असत्य भाषण करने वाले की जीभ काट ली जाती है, कान और नाक का छेदन किया जाता है। इस प्रकार असत्यवादी अत्यन्त निन्दनीय फल भोगता है। परलोक में उसे नरक आदि को तीत्र यातनाएँ एवं घोर दुःख सहन करने पड़ते हैं। इस प्रकार असत्य भाषण से जीव नाना प्रकार के दुःखों से युक्त होता है । दूसरों के साथ उसका वैर बंध जाता है। जिह्वा छेदन आदि के कष्ट उसे प्राप्त होते हैं। इन सब पूर्वोक्त दोषों की अपेक्षा भी उसे वध- बन्धन आदि दुःखों के विशेष कारण प्राप्त होते हैं। जिसका अध्यवसाय तीव्र होता है, वह दीर्घ स्थिति और तीव्र अनुभाव (रस) वाले कर्मों का बन्ध करता है। फलस्वरूप परलोक में तीव्र अशुभ वेदना का वेदन करता है। असत्य भाषण के इस प्रकार के फल-विपाक की विचारणा करने वाले के चित्तमें उससे अरुचि उत्पन्न हो जाती है और वह सोचता है कि असत्य भाषण से विरत होना ही श्रेयस्कर है ! इस तरह के विचार के फलस्वरूप वह असत्य भाषण से विरत हो जाता है । जैसे प्राणातिपात और असत्य भाषण करने वालों को अनर्थों का सामना करना पड़ता है, उसी प्रकार परकीय द्रव्य के अपहरण में आसक्त चोर को भी अनर्थ भोगने पड़ते हैं। वह सबके लिए त्रासदायक होता है। वह जिसके धन को चुराता है, उसे बड़ा ही उद्वेग उत्पन्न होता है । इस पापकृत्य का सेवन करने से चोर को ताड़न, पीडन चाबुकों की मार, हथकड़ियों-बेड़ियो का बन्धन, हाथों पैरों कान नाक होठ आदि अवयवों का छेदन-भेदन, सर्वस्वहरण आदि-आदि दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं । परलोक में भी उसे नरक आदि की तीव्र यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं । अतएव चोरी से विरत हो जाना ही कल्याणकर है । इस प्रकार की भावना करने वाला चोरी से निवृत हो जाता है ! .
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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