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दीपिकानियुक्तिश्च भ० ४ ३सू. ८ तीर्थकरत्वशुभनामकर्मबन्धनिरूपणम् ४५३
शीलव्रतम् , तत्र-शीलं पिण्डविशुद्धिसमितिभावनादयः उत्तरगुणाः अभिग्रहलक्षणाः मुमुक्षोः समाविकारणत्वात्, व्रतञ्च पञ्चमहाव्रतात्मकम् रात्रिभोजनविरतिपर्यवसानं च गृह्यते शीलानि च व्रतानि चेति शीलवतानि तेषु निरतिचारत्वं निरतिचार इति, नितरामत्यन्तमनतिचारो-ऽप्रमादःसंयमप्रतिपत्तिकालादारभ्याऽऽयुषः क्षयपर्यन्तमविश्रान्त्या-ऽऽत्यन्तिकाऽप्रमादात्मकः सप्तदशविध संयमः सर्वज्ञश्रीतीर्थकर भगवत्प्रणीतसिद्धान्तानुसरणरूपनिरतिचारपूर्वकं शीलव्रतविषयमनुष्ठानमित्यर्थः, एतदपि-तीर्थकरनामकर्मणो हेतुरिति भावः ॥ १२ ॥
क्षणलवेति - कालोपलक्षणम् क्षणलवादिकालेषु प्रमादं विहाय शुभध्यानकरणम् १३ तपः स्वानुरूपशक्त्यपेक्षं तपश्च तीर्थकरत्वनामकर्मणो हेतुरवगन्तव्यः, कर्मणस्तापनात् । शोषणात्तप उच्यते, तच्च तपो द्विविधम्, बाह्याभ्यत्तरभेदात् । प्रत्येकं पुनः षविधम्, प्रायश्चित्तादिभेदात् अनशनादिभेदाच्च तच्च -तपः स्वशक्त्यपेक्षम्, लौकिकपूजाप्रतिष्ठासत्कारसम्मानतृष्णानिरपेक्षेण चित्तेनाऽनुष्ठोयमानं सत् तीर्थकरनाकर्मबन्धहेतुर्भवति ॥१४॥
त्यागः---त्यागो दानम् , तच्चा-ऽभयदानं करुणादानं, सुपात्रदानं च तत्रा-ऽभयदानं भयानुत्पादनं परैर्भयं प्राप्तस्य मार्यमाणस्य कथञ्चिन्म्रियमाणस्य च परिरक्षणम्, करुणादानं करुणया
(१२) शील और व्रत-का निरतिचार पालन करने से भी तीर्थंकर नाम कर्म बँधता है । यहाँ शील का अर्थ है-पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना आदि उत्तरगुण एवं नाना प्रकारके अभिग्रह; क्योंकि इनसे मुमुक्षु को समाधि की प्राप्ति होती है । पाँच महाव्रत और रात्रिभोजन विरमण को व्रत शब्द से ग्रहण किया जाता है । इनका पूर्णरूप से निरतिचार पालन करना अर्थात् संयम को स्वीकार करने से लगा कर जीवन पर्यन्त अप्रमत्तभाव से सेवन करना निरतिचार शील-व्रत पालन कहलाता है । अर्थात्-सर्वज्ञ श्री तीर्थकर भजवान द्वारा प्रणीत सिद्धांत के अनुसार शीलों और व्रतों का अनुष्ठान करना निरविचार शील व्रतका पालन कहलाता है । इससे भी तीर्थकर नामकर्म का बन्ध होता है।
(१३) क्षणलव—यह काल का सूचक है । क्षण भर या लव मात्र भी प्रमाद न करके शुभ ध्यान करना।
(१४) तप-अपने सामर्थ्य के अनुसार तपस्या करने से भी तीर्थंकर नामकर्म का बंध होता है । जो कमों को तप्त कर दे-सोख ले, वह तप । तप दो प्रकार का है-बाह्य
और आभ्यन्तर बाह्य तप छह प्रकार का है और आभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का है । प्रायश्चित्त आदि आभ्यन्तर तप हैं और अनशन आदि बाह्य तप हैं । इन तपों का यदि लौकिक पूजा–प्रतिष्ठा, सत्कार-सम्मान आदि की इच्छा के बिना, केवल कर्मनिर्जरा के हेतु ही अनुष्ठान किया जाय तो तीर्थकर नाम कर्म का बन्ध होता है ।
(१५) त्याग--का अर्थ दान है। दान दो प्रकार का है-अभयदान और सुपात्रदान । अपनी ओर से भय उत्पन्न न करना, दूसरा किसी को भयभीत कर रहा हो, मार