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________________ दीपिकानिर्युक्तिश्च अ० ४ ०८ तीर्थकरत्वशुभनामकर्मबन्धनिरूपणम् ४४९ तत्वार्थदीपिका --- विंशतिस्थानाराधनेन तीर्थकरत्व शुभनामकर्मबन्धो भवति तत्रविंशति–स्थानकानि तावदिमानि सन्ति, [१-७] अर्हत् सिद्ध- प्रवचन- गुरु- स्थविर - बहुश्रुततपस्विषु वत्सलता-७ । यथावस्थितगुणग्रामोत्कीर्तनरूपा भक्ति: - ८ ।, तथा तेषामेवा - र्हदादीनां ज्ञानेऽभीक्ष्णम् - शाश्वतं पुनः पुनरुपयोगः, ज्ञानेषूपयोगो ज्ञानोपयोगः इत्यष्टस्थानकानि । ' दर्शनं सम्यक्त्वश्रद्धानरूपम् - ९ विनयो गुरुदेवादिविषयकः - १०, आवश्यकम् उभयकालम् आवश्यककरणम् - ११, शीलव्रतञ्च - निरतिचारम्, व्रतप्रत्याख्यान निर्मलपालनम् - १२ क्षणल वादि कालेषु प्रमादं विहाय शुभध्यानकरणम् - १३ तपो - द्वादशविधम्-- १४ त्यागो दानम्, तच्च - परै र्भयं प्राप्तस्य मार्यमाणस्य कथञ्चिन् म्रियमाणस्य च परिरक्षणम्, अभयदानमन्त्र करुणादानस्योपलक्षणम्, सुपत्रेभ्यो दानम् सुपात्रदानम् महाव्रतधारिभ्यः प्रतिमाधारिश्रावकेभ्यश्च दानं सुपात्रदानम् चतुर्विध श्रमण - श्रमणी श्रावक-श्राविका रूप - संधसुखोत्पादनमित्यर्थः - १५ । वैयावृत्त्यम्— आचार्यादीनां सुश्रूषा १६ समाधिः - सर्वजीवानां सुखोत्पादनम्-१७ अपूर्व ज्ञानग्रहणं प्रसिद्धम्-१८ श्रुतभक्तिः जिनोक्तागमेषु परमानुरागः - १९ प्रवचने प्रभावना, प्रभूत सूत्रार्थ -- 'वीसई ठाण राहणेणं' इत्यादि । सूत्र. ८ वीस स्थानों की आराधना से तीर्थकर नाम कर्म का बन्ध होता है || ८|| तत्त्वार्थदीपिका--बीस स्थानों अर्थात् बोलों का आराधन करने से तीर्थंकर नामक शुभनाम कर्म का बन्ध होता है । वे वीस स्थानक निम्नलिखित हैं (१) अर्हन्त भगवान् के प्रति वात्सल्यभाव होना अरिहन्त भगवान् का गुणग्राम करना । २, सिद्ध भगवान् के प्रति वात्सल्यभाव होना। ३ प्रवचन के प्रति वत्सलता होना । ४, गुरु के प्रति वत्सलता होना । ५ स्थविर (वृद्ध) के प्रति वत्सलभाव होना । ६ बहुश्रुत अर्थात् विविध शास्त्रों के ज्ञाता के प्रति वात्सल्य होना ७ तपस्वी जनों के प्रति वात्सल्य होना अर्थात् इनके वास्तविक गुणों का कीर्त्तन करने रूप भक्ति होना । तथा ८ इनके ज्ञानमें निरन्तर उपयोग लगाये रखना । ९ दर्शन अर्थात् निर्मल तत्त्वार्थ श्रद्धान होना १० देव और गुरु के प्रति विनयभाव होना । ११ दोनों कालों में आवश्यक क्रिया करना । १२ शीलवत प्रत्याख्यान को निर्मल पालना । १३ क्षण, लब आदि कालों में प्रमाद त्याग कर शुभ ध्यान करना । १४ बारह प्रकार का तपश्चरण करना । १५ दान देना दूसरे किसी को भयभीत कर रहे हों या मार रहे हों या किसी कारण कोई मर रहा हो तो उस की रक्षा करना। यह अभय दान यहाँ करुणादान का उपलक्षण - सूचक है । सुपात्रों को दान देना अर्थात् महाव्रतधारी तथा प्रतिमाधारी श्रावकों को दान देना अर्थात् श्रमण, श्रमणी श्रावक और श्राविका रूप संघ को सुख साता उपजाना । १६ वैयावृत्य आचार्य आदि की शुश्रूषा करना । १७ समाधि- समस्त जीवों को सुख उपजाना । १८ नित्य नया ५७
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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