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॥अथ चतुर्थोऽध्यायः मूल सूत्रम्--"सुभकम्मं पुणं" ॥ १॥ छाया--"शुभकर्म पुण्यं" ॥१॥
तत्त्वार्थदीपिका-जीवाजीवबन्धपुण्यपापाऽऽनवसंवरनिर्जरामोक्षाख्येषु नवतत्त्वेषु जीवाजीवबन्धात्मकानि त्रीणि तत्त्वानि प्रथम-द्वितीय-तृतीयाध्यायेषु क्रमशः प्ररूपितानि, सम्प्रतिक्रमप्राप्तं चतुर्थ पुण्यतत्त्वं प्ररूपयितुमाह-"सुभकम्मं पुण्णं" इति.।
__ शुभकर्म पुण्यमुच्यते, पुणति-शुभयत्यात्मानमिति पुण्यम् "पुणशुभे"इत्यस्माद् औणा दिको यत्प्रत्ययः, अथवा-पूज्यते पवित्री क्रियते आत्माऽनेनेति पुण्यम्, पुनात्यात्मानमिति वा पुण्यं शुभकर्म, पञ् पवने इत्यस्मात् “पूजो यण्णुक्हस्वश्च-" इत्यौणादिकसूत्रेण यत्प्रत्ययः, णुगागमोहूस्वश्चेति पुण्यशब्दसिद्धिः ।।
___ तत्र-शुभं कल्याणं सुखं तज्जनकं कर्माऽहिंसादिकं पुण्यम् पुण्यजनकं व्यपदिश्यते, कारणे कार्योपचारात्, पुण्यजनकेऽहिंसादिशुभकर्मणि पुण्यशब्दोपचाराद् शुभकर्म पुण्य-मित्युच्यते । तच्च-शुभकर्माऽनेकविधं प्रज्ञप्तम् । तद्यथा-साताधेदनीयम्-सम्यक्त्वम्-पञ्चमहाव्रतानि-पश्चाणुव्रतानिशुभायुष्यम्-शुभनाम-शुभगोत्रम्-सत्यभाषणमित्यादि ॥१॥
चतुर्थ अध्याय सूत्रार्थ--'सुभकम्मं पुण्णं' सूत्र-१ शुभ कर्म पुण्य कहलाता है ॥१॥
तत्त्वार्थदीपिका- जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, : निर्जरा और मोक्ष, नौ तत्त्वों में से जीव, अजीव और बन्ध तत्वों का प्रथम, द्वितीय और तृतीय अध्यायों में क्रमशः विवेचन किया जा चुका है । अब प्रसंग प्राप्त पुण्य तत्त्व का विषे. चन किया जाता है।
शुभ कर्म को पुण्य कहते हैं। जो आत्मा को पुनीत (पवित्र-शुभ) बनाता है, या जिसके द्वारा आत्मा पवित्र बनता है, वह पुण्य है। "पुञ् धातु का अर्थ है पवित्र करना । इस धातु से 'पूजो यण्णुक् ह्रस्वश्च' इस उणादि सूत्र से यत् प्रत्यय, 'णु' का आगम और हस्व होने पर 'पुण्य' शब्द की निष्पत्ति हुई है।
कल्याण या सुख को 'शुभ' कहते हैं और उन्हें उत्पन्न करने वाला कर्म भी 'शुभ' कहलाता है। पुण्य के जनक, अहिंसा आदि शुभ कर्म भी कारण में कार्य का उपचार करने से पुण्य कहे जाते हैं। वे शुभ कर्म अनेक प्रकार के हैं, जैसे-सातावेदनीय, सम्यक्त्व, पाँच महाव्रत, पांच अणुव्रत शुभ आयु, शुभ नाम, शुभ गोत्र, सत्यभाषण आदि ॥१॥