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दीपिकानियुक्तिश्च अ० ३ सू. २१
अनुभावबन्धनिरूपणम् ४१९ ___ एवं दर्शनावरणं कर्म विपच्यमानं सामान्योपयोगोपरोधे पर्यवस्यति, दर्शनं सामान्योपयोगलक्षणम् आवियते येन तत्कर्म-दर्शनावरणमित्यन्वर्थत्वमवसेयम् । एवं सातावेदनीयंकर्म विपच्यमानं सुखानुभवे पर्यवस्यति, असातावेदनीयञ्च कर्म विपच्यमानं दुःखानुभवे पर्यवस्यति । एवम्----दर्शनमोहनीयं कर्म विपच्यमानं तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं दर्शनं मोहयतीति बोध्यम् । चारित्रमोहकर्म विपच्यमानं मूलोत्तरगुणभेदलक्षणं चारित्रं मोहयतीति बोध्यम् ।।
एवं यदुदयाद् आयुर्जीवनं प्राणधारणं भवति, तदायुः कर्म विपच्यमानं प्राणधारणे पर्यवस्यति । एवं तांस्तान् गतिजात्यादीन् भावान् प्रशस्तान्-अप्रशस्तांश्च नामयति-प्रापयतीति नामकर्म विपच्यमानं गतिनामाद्यनुभवे पर्यवस्यति । एवं नामकर्मणः प्रतिभेदमपि-अन्वर्थत्वमनुसृत्यैव विपाकोऽवगन्तव्यः, यथा-गतिं नामयतीति गतिनाम. ।
एवं जातिनाम-शरीरनाम-अङ्गोपाङ्गनामादि तीर्थकरनामकर्म विपच्यमानं तत्तद्भावे पर्यवस्यति । एवं-गोत्रकर्म, गूयते-शब्द्यते इति गोत्रं-संशब्दनम् "गुशब्दे" इत्यस्माद्धातो ष्टन् प्रत्यये गोत्रशब्दसिद्धिः तच्च गोत्रं द्विविधं भवति, उच्चै गोत्रम्-१ नीचैर्गोत्रञ्चेति-२
तत्र-यस्य कर्मण उदयादुच्चैरयं पूज्यः-उग्रो. भोज-इक्ष्वाकु रित्येवं गूयते-संशब्दयते गीयते तदुच्चै गोत्रं कर्म विपच्यमानं तथाविधोच्चवंशसंशब्देन पर्यवस्यति ! कहलाता है । ज्ञानावरण कर्म जो फल देता है उसका पर्यवसान ज्ञान के अभाव में होता है । अर्थात् ज्ञानावरण कर्म अपने नाम के अनुसार ज्ञान का निरोध करता है।
इसी प्रकार दर्शनावरण कर्म का फल दर्शन अर्थात् सामान्य बोध को आच्छादित करना है । दर्शन अर्थात् सामान्य उपयोग, उसे जो आवृत करे वह दर्शनावरण । इस प्रकार नाम के अनुरूप ही उसका विपाक होता ।
सातावेदनीय का फल सुख का वेदन कराता है। आसातावेदनीय असाता अर्थात दुःख का वेदन-अनुभव कराता है । दर्शनमोहनीय कर्म जब फल देता है तो दर्शन अर्थात तत्त्वार्थश्रद्धान को मोहित- कलुषित या नष्ट करता है । चारित्रमोहनीय कर्म चारित्र को उत्पन्न नहीं होने देता।
इसी प्रकार जिस कर्म के विपाक से आयु अर्थात् प्राणधारण होता है, वह आयु कर्म कहलाता है । इस प्रकार आयु कर्म का विपाक प्राणधारण है । इसी प्रकार गति जाति आदि प्रशस्त या अप्रशस्त भावों को जो कर्म प्राप्त कराता है वह नामकर्म भी गतिनाम आदि कहलाता है इसका फल भी नाम के अनुसार ही समझना चाहिए । गोत्र कर्म का फल भी उसके नाम के अनुकूल होता है । 'गुङ्' धातु शब्द के अर्थ में है । ष्टन् प्रत्यय होने से 'गोत्र' शब्द सिद्ध होता है गोत्र दो प्रकार है-उच्चगोत्र और नीचगोत्र । जिस कर्म के फल स्वरू जीव ऊंचा कहलाता है-यह पूज्य है। उग्र कुल