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________________ ३९४ तत्त्वार्थसूत्रे योर्मर्कटबन्धो भवेत्तत्-नाराचसंहननम् ३।यत्र-एकस्मिन् पार्श्वे मर्कटबन्धः, द्वितीये कीलिका भवेत्तद् अर्धनाराचसंहननम् ४।यत्र द्वयोरस्नोःसन्धिभागः कीलिकया विद्धो भवेत् यत्र कीलिकाविद्धास्थिद्वयसंचितं तत् कीलिकासंहननम् ५।यत्र अस्थ्यां परस्परं पर्यन्तभागैःस्पर्शनमात्रं भवेत्तत् सेवार्तसंहननम्। संस्थाननाम-तावत्षविधम् समचतुरस्रादिभेदात्. तत्र संस्थानं संस्थितिः आकारविशेषोऽवयवरचनाविवेषःपूर्वोक्तेष्वेव बध्यमानेषु पुद्गलेषु यस्य कर्मणउदयात् संस्थानविशेषो भवति. तत्संस्थाननाम । तत्र-समञ्च तत् चतुरस्रञ्चेति समचतुरस्रम्, मानोन्मानप्रमाणमन्यूनमनधिकम्, एवं न्यग्रोधपरिमण्डलादिकमपि बोध्यम् । वर्णनाम-कृष्णनीललोहितपीतशुक्लनामभेदात् पञ्चविधम् । गन्धनाम-द्विविधम्, सुरभिपूर्वोक्त प्रकार से हों किन्तु वज्राकार कोलिका मात्र नहीं हो उस बन्धन विशेष को ऋषभनाराचसंहनन कहते हैं २ । जिसमें दोनों तर्फ में मर्कट बन्ध हो उसको नाराचसंहनन कहते हैं । ३ जिसमें एक तर्फ तो मर्कट बन्ध हो दूसरी तर्फ कीलिका हो उसकों अर्द्धनाराच संहनन कहने हैं ४ । जिसमें दो हड्डियों का संधि भाग (जोड) कीलिका से विद्ध-बंधी हुई हो उसको कीलिका संहनन कहते हैं ५ । और जिसमें हड्डियों का अग्रभाग परस्पर में स्पर्श मात्र से मिले हुए हों उसको सेवार्त्त संहनन कहते हैं ६ । ___ संस्थान नाम कर्म के छह भेद हैं-समचतुरस्रसंस्थान आदि । यहाँ संस्थान का आशय है-आकार अर्थात् अमुक आकार में शरीर की रचना होना तात्पर्य यह है कि शरीर के योग्य बाँधे जाने वाले पुद्गलों में जिस कर्म के उदय से कोई विशिष्ट आकृति उत्पन्न होती है, वह संस्थान नाम कर्म कहलाता है। जो संस्थान सम चौरस हो वह समचतुरस्र कहलाता है। मान, उन्मान और प्रमाण की अपेक्षा से उसमें न न्यूनता होती है, और न अधिकता। __जिसमें नाभि से ऊपर के भाग में सभी अवयव चरस समचतुष्कोण अर्थात् यथोचित लक्षण वाले हों किन्तु नाभि के नीचे का भाग ऊपर जैसा न हो उसको न्यग्रोध परिमंडल संस्थान कहते हैं २ । जिसमें नाभि के नीचे के भाग में सभी अवयव समचतुरस्त्र समचतुष्कोण अर्थात् यथोचित लक्षण वाले हों किन्तु नाभि के उपर का भाग नीचे जैसा न हो उसको सादि संस्थान कहते हैं ३। जिसमें ग्रीवा-गर्दन-हस्त और चरण समचतुरस्रसमचतुष्कोण अर्थात् यथोचित लक्षणवाले हों किन्तु शरीर का मध्यभाग-हृदय पीठ आदि संक्षिप्तविकृत हो उसको कुब्जसंस्थान कहते हैं ४ । जिसमें शरीर का मध्य भाग तथा ग्रीवा-गर्दन हस्त और चरण सब समचतुरस्त्र-समचतुष्कोण और यथोचित लक्षणवाले हों किन्तु प्रमाण में छोटे हों उसको वामन–संस्थान कहते हैं ५ । जिसमें हस्त चरण आदि अवयव बहुप्राय अर्थात् प्रमाणोपेत नहीं हों उसको हुंडसंस्थान कहते हैं ६ ।। वर्णनामकर्म पाँच प्रकार का है-कृष्ण वर्णनामकर्म, नील वर्ण नामकर्म, रक्त वर्ण
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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