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तत्वार्थ सूत्रे
“प्रत्येकमात्मदेशाः कर्मावयवैरनन्तकैर्बन्धाः ।
कर्माणि बनतो मुञ्चतच सातत्ययोगेन ॥४ इति ॥
उक्तञ्च समवायाङ्गे ४ समवाये - " चउव्विहे बंधे पण्णत्ते, तंजहा पगइबंधे - ठिइबंधेअणुभावबंधे पएसबंधे - " इति । चतुर्विधो बन्धः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - प्रकृतिबन्धः - १ स्थितिबन्धः- २ अनुभावबन्धः - ३ प्रदेशबन्धः ४ इति || २ ||
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मूलसूत्रम् - "बंधउणो पंच मिच्छादंसणाविरइपमायकसायजोगा - " ३॥ छाया - बन्धहेतवः पञ्च, मिथ्याऽदर्शना - ऽविरति -प्रमाद- कषाययोगाःतत्त्वार्थदीपिका - पूर्वं कर्मभावबन्धः प्ररूपितः सम्प्रति-तस्य बन्धस्य हेतून प्रतिपादयति - "बंध हे उणो" इत्यादि । तत्र मिथ्यादर्शनं तावत् तत्त्वार्थाश्रद्धानम्, कुदेव - कुगुरु- कुधर्माणां श्रद्धानमित्यर्थः सम्यग्दर्शनस्य तत्त्वार्थश्रद्धानरूपस्य प्रतिपक्षरूपम् ।
अविरतिः -- प्राणातिपातादिपापस्थानेभ्योऽनिवृत्तिर्विरतिपरिणत्यभाव - रूपस्य या विपरीतरूपाप्रमादस्तु - प्रमदनं-प्रमत्तता, सदुपयोगाभावः पुण्यकर्मस्वनादरः - ३ कषायाः - क्रोध-मान- मायाउन पूर्वोक्त कर्मस्कन्धों का जीव के द्वारा संपूर्ण प्रदेशों से योग विशेष के द्वारा ग्रहण होना प्रदेशबन्ध है ॥ ३ ॥
आत्मा का प्रत्येक प्रदेश अनन्त - अनन्त कर्म प्रदेशों से बद्ध है । यह जीव निरन्तर योग के कारण कर्मों का बन्ध करता है और उनकी निर्जरा भी करता रहता है || ४ ||
समवयांग सूत्र के चौथे समवाय में कहा है-बन्ध चार प्रकार का कहा गया है वह इस प्रकार हैं - ( १ ) प्रकृतिबन्ध ( २ ) स्थितिबन्ध (३) अनुभावबन्ध और (४) प्रदेशबन्ध ॥२॥
सूत्रार्थ - 'बंध उणो पंच' - इत्यादि सूत्र ॥३॥
कर्मबन्ध के पाँच कारण हैं (१) मिथ्यादर्शन (२) अविरति ( ३ ) प्रमाद ( ४ ) कषाय और (५) योग ॥ ३ ॥
तत्वार्थदीपिका - - पहले कर्मबन्ध के प्रकार प्रदर्शित किये गये हैं, अब उसके हेतुओं का प्रदिपादन करते हैं मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कशाय और योग, ये कर्मबन्ध के कारण हैं । sa का अर्थ इस प्रकार है
१ - मिथ्यादर्शन - तत्त्वार्थ को अर्थात् कुदेव, कुगुरु और कुधर्म के श्रद्धान को मिथ्यादर्शन कहते हैं । तत्त्वार्थश्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन का यह विरोधी है ।
२ - अविरति - प्राणातिपात आदि पापस्थानों से निवृत्त न होना । यह अविरति विरति रूप परिणति से विपरीत है ।
३ – प्रमाद - प्रमदन, प्रमत्तता, समीचीन उपयोग का अभाव पुण्य कृत्यों में अनादर यह सब प्रमाद 1