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________________ तत्त्वार्थसूत्रे अथबा--- "निच्चावट्टिया रूवाई-' इति पूर्वम् अस्मिन्नेव द्वितीयेऽध्याये तृतीयसूत्रे नित्यमित्युक्तम् तत्र-न सर्व सद् नित्यं भवति, अरूपग्रहणात् अतो रूपवतोऽनित्यत्वमर्था दापद्यते तस्मात् सर्वं सद् न नित्यम् , नाऽप्यनित्यं वक्तुं शक्यते । अतोऽवस्थितिरूपाऽन्वयांशमादाय रूपवदपि वस्तु नित्यं कथञ्चित्सम्भवति-इत्यभिप्रायेणाह-"तब्भाववयं णिच्च-, इति । तद्रावाव्ययं नित्यमिति तच्छन्दस्य प्रक्रान्तपरामर्शकत्वात् सदित्यर्थः तस्य सतो वस्तुनो भवनं भावस्तद्भावः तदेव सद्वस्तु-मृत्पिण्डसुवर्णादिजीवादि च तथा तथा भवति शरावोदञ्चन कपाल घट-कटकवलयकुण्डलादिरूपेण देवादिरूपेण च, किन्तु-न कदाचिदपि स्वतत्त्वमृत्पिण्डत्व-सुवर्णत्व जीवत्वादित्यागेन तथाविधान्यथा जायते । सर्वत्रैव घटकुण्डलदेवादिषु मृत्पिण्डसुवर्णजीवतत्त्वाना मन्यथा दर्शनात् अतस्तद्भाबाव्ययमविनाशि नित्यं भवति धटादिसदस्त्विति भावः । ___ अन्यथा-उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदिति सल्लक्षणमव्यापकं भवेत्, घटादिषु-उत्पादव्ययरूपपर्यायस्यैवाऽभ्युपगमे ध्रौव्यांशग्रहणाभावात्। तस्मात्-रूपादिमद् घटादि सद्वस्त्वपि मत्पिण्डाद्यन्वयवत्त्वेन धौव्यांशवत्वाद् उत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणाक्रान्तत्वात् ध्रौव्यांशमादाय कथञ्चिन्नित्यमिति व्यपदिश्यते । निवारण करने के लिए कहते हैं-अथवा इसी द्वितीय अध्याय के तीसरे सूत्र "णिच्चा वट्ठिया रूवाइं" में 'नित्य' कहा है; वहाँ सर्व सत् नित्य नहीं हैं, क्योंकि स्वरूप का ग्रहण किया है; ऐसी स्थिति में रूपी वस्तु की अनित्यता प्रतीत होने लगती है, अतः समस्त सत् पदार्थ न नित्य और न अनित्य कहे जासकते हैं, अतएव ध्रौव्य रूप अंश की अपेक्षा से रूपी वस्तु भी कथंचित् नित्य है, इस आशय को प्रकट करने के लिए कहते हैं ___तब्भाववयं निच्चं' इस सूत्र में 'तत्' शब्द से 'सत्' का ग्रहण करना चाहिए । सत् वस्तु का भाव 'तद्भाव' कहलाता है ? वह सद् वस्तु मृत्तिका हि शराव, उदंचन, कपाल, घट आदि रूप में और स्वर्ण ही कटक, वलय, कुण्डल आदि रूप में तथा जीव ही देव आदि के रूप में होता है। ऐसा कभी नहीं होता कि अपने मूल स्वभाव मृत्तिका पिण्डत्व, सुवर्णत्व और जीवत्व का त्याग करके वह अन्यथा रूप में हो जाए । क्योंकि घट, कुण्डल और देव आदि में मृत्पिण्ड, स्वर्ण और जीव तत्त्व का अन्वय देखा जाता है । अतएव घट आदि सद् वस्तु अपने मौलिक स्वभाव से विनष्ट नहीं होती है; यही उसकी नित्यता है । ऐसा नहीं माना जाएगा तो 'सत् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होता हैं, यह सत् का लक्षण अव्यापक हो जायगा; क्योंकि घट आदि में उत्पाद और व्यय रूप पर्याय ही मानने से ध्रौव्य अंश का ग्रहण नहीं होगा । इस कारण रूपादिमान् घट आदि सत् वस्तु भी मृत्तिका आदि का अन्वय होने से ध्रौव्य अंश वाली है एवं उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य लक्षण से युक्त है । इस कारण ध्रौव्य , अंश को अपेक्षा से कथंचित् नित्य कहलाती है।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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