SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ२ सू १९ पुद्गलस्वरूपनिरूपणम् २५९ तथाहि-बाह्यार्थस्याऽस्तित्वाभावे · वस्तुस्वरूपग्राहिज्ञानं प्रमाण प्रत्यक्षम्, अर्थान्तरविकल्पद्वारा प्रवर्तमानं प्रत्यक्षप्रमाणाभासम् इत्येवं विशेषो न स्यात् । तस्माद् विज्ञानं बाह्यार्थ स्वरूपाऽमुकारितयैव साकारं भवति, तस्य बाह्यार्थस्वरूपाऽनुकारित्वाभावेनाऽनाकरत्वस्वीकारे प्रत्यासन्ति विप्रकर्षाभावेन सर्वार्थानामेव ग्रहणं वा स्यात्-अग्रहणं वाऽऽपयेत; अतोग्राहकविशेषादेव ग्राह्यदृष्टिनिबन्धनं भवति ।। अन्यथा- 'अर्थज्ञानम्" इत्येवं व्यवहारोऽपि न स्यात्, व्यवहारस्योपकारप्रभावित्वात् उपकारस्य च प्रयोज्य-प्रयोजकमावस्याऽविनाभावत्वेन नान्तरीयकत्वात् । तथाच - कृष्णादिवर्णगन्धरसस्पर्शवत्वात् पुद्गलानां जीवभिन्नत्वं विज्ञानादिपरिणामभिन्नत्वञ्च सिद्धम् अतो जीवविज्ञानपरिणामात्मकत्वं पुद्गलानां भवतीति भावः ॥१९॥ मूलसूत्रम्-'सबंधयारउज्जोयपभा छायातवबंधसुहुमबायरत्तसंठाणभेया य-"॥२० छाया-"शब्दान्धकारोद्योतप्रभाछायाऽऽतपसूक्ष्मबादरत्वसंस्थानभेदाश्च-' ॥२०॥ तत्त्वार्थदीपिका-पुद्गलेषु न केवलं वर्ण-गन्ध-रस-स्पी एव भवन्ति अपितु-अन्येपि शब्दादयों भवन्तीति प्रतिपदयितुमाह-'संबंधयार-" इत्यादि । पूरण-गलनलक्षणेषु शब्दः- अन्धकार:-उद्योतः-प्रभा-छाया-आतपः-बन्धः-सूक्ष्मबादरत्वसंस्थानभेदश्चेत्येते पुद्गलद्रव्यविकारा अपि के स्वरूप को ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण है और अर्थान्तर के विकल्प द्वारा प्रवृत्त होने वाला प्रत्यक्षप्रमाणाभास है; इस प्रकार का भेद बाह्य पदार्थ का अस्तित्व माने विना हो नहीं सकता । __ ज्ञान बाह्य पदार्थों के स्वरूप के अनुकरण करके ही साकार होता है । यदि वह बाह्य पदार्थों का अनुकरण न करे तो सभी पदार्थों के लिए समान होगा । ऐसी स्थिति में वह ग्रहण करे तो सभी को ग्रहण करे और न ग्रहण करे तो किसी भी पदार्थ को ग्रहण न करे । अतः ग्राहक के विशेष से ही ग्राह्य के दृष्टि का कारण होता है। ___अन्यथा 'अर्थज्ञान' ऐसा व्यवहार भी नहीं होना चाहिए, क्योंकि व्यवहार उपकार से प्रभावित होता है। निमित्त नैमित्तिकभाव रूप उपकार अविनाभाव होने से अन्यथानुपपन्न है । इस प्रकार वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से युक्त होने के कारण पुद्गल जीव से भिन्न है और जीव के ज्ञानादि परिणामों से भी भिन्न है । तात्पर्य यह है कि पुद्गल जीव या विज्ञान का परिणाम नहीं है ॥१९॥ मूलसूत्राथे--- "सबंधयार उज्जोय' इत्यादि सूत्र २० । शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, आतप, बंध, सूक्ष्मत्व, बादरत्व, संस्थान और भेद भी पुद्गलरूप हैं॥२०॥ तत्त्वार्थदीपिका--पुद्गल केवल वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शात्मक ही नहीं हैं किन्तु शब्द आदि भी पुद्गल ही हैं, यह निरूपण करने के लिए कहते हैं
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy