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________________ aa.............................. दोपिकानियुक्तिश्च अ २ सू. १९ पुद्गलस्वरूपनिरूपणम् २५७ स्तु बौद्धविशेषा विज्ञानपरिणामः पुगल इत्यङ्गीकुर्वन्ति तथाचोक्तम्-- आत्मधर्मोपचारो हि विविधो यः प्रवर्तते । विज्ञानपरिणामोऽसौ परिणामः स च त्रिधा ॥इति . तन्न समीचीनम् तान्निराकर्तुमाह-'पोग्गलेसु' इत्यादि पुद्गलेषु-वर्णगन्धरसस्पर्शा · भवन्ति एवञ्च-पुद्गलेषु शुक्लादि वर्ण-गन्ध-रसादिमत्त्वेन मूर्तत्वात् जीवानाञ्च-वर्णादिरहितत्वेनाऽमूर्तत्वात् मूर्तस्याऽमूतत्वाऽसम्मवात । तथाच-पृथिवीवत्-जलादीन्यपि वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शवन्ति सन्ति मनोऽपि स्पर्शादिमद् वर्तते असर्वगतत्वात् पार्थिवपरमाणुवत् । तत्र वर्णः कृष्ण नील-पीत-शुक्ल लोहितभेदात् पञ्चविधः । गन्धस्तावद् द्विविधः सुरभि-रसुरभिश्च । रसस्तु-तिक्तकटुकषायाऽम्लमधुरभेदात्पञ्चविधः स्पर्शः पुनरष्टविधो भवति कर्कश-१ मृदु-२ गुरु-३लघु-४ शीतो-५ ष्ण-६स्निग्ध ७ रूक्ष-८ भेदात् । यद्यपि-लवणोऽपि रसः सर्वैरनुभूयते । तथापि--मधुररसे तस्यान्तर्भावो बोध्यः अस्तुवा-तस्य पञ्चस्व रसेष्वन्तर्भावः, लवणरसस्य सर्वेषां रसानाममि व्यञ्जकवात् । येषु च-जलादिपुद्गलेषु द्वित्राः गन्धादयः प्रकटतया नाऽनुभूयन्ते तेष्वपि-स्पर्शसद्भावात् गति को ग्रहण करता है । बौद्धों का एक सम्प्रदाय जो योगाचार कहलाता है, वह विज्ञान के परिणाम को पुद्गल कहते हैं। कहाभी है--आत्मधर्म का जो उपकार विविध प्रकार से प्रवृत्त होता है वह विज्ञान का परिणाम है । वह परिणाम तीन प्रकार का है। यह मान्यता समीचीन नहीं है अतः उनका निराकरण करने के लिए कहते हैंपुद्गलों में वर्ण गन्ध रम और स्पर्श होते हैं । इसप्रकार पुद्गलों में शुक्ल आदि वर्ण गंध रस और स्पर्श का सद्भाव होने से जीव को पुदगल नहीं कहा जा सकता । वर्ण आदि से युक्त होने के कारण पुद्गल मूर्त होते है और जीव वर्ण आदि से रहित होने के कारण अमूर्त है इस प्रकार जो मूर्त है वह अमूर्त कैसे हो सकता है ? पृथ्वी के समान जल आदि भी वर्ण गंध रस और स्पर्श वाले हैं । मन भी स्पर्श आदि से युक्त है, क्यों कि वह सर्वव्यापि नहीं है, जैसे पार्थिव परमाणु। वर्ण के पाँच प्रकार हैं--काला, नीला, पीला, धौला और लाल । गंध के दो भेद हैं-सुगंध और दुर्गध । रस पाँच तरह का है--तिक्त, कटुक, कषाय, खट्टा और मीठा । स्पर्श के आठ भेद हैं-(१) कर्कश (२) मृदु (३) गुरु (४) लघु (५) शीत (६) उष्ण (७) स्निग्ध-चिकना और (८) रूक्ष-रूखा । यद्यपि नमकीन रस का भी सभी को अनुभव होता है परन्तु उसका समावेश मधुर रस में हो जाता है । अथवा पाँचो ही रसों में उसका अन्तर्भाव समझ लेना चाहिए, क्योंकि वह सभी रसों का अभिव्यंजक होता है । जल आदि जिन पुद्गलों में प्रकट रूप से गन्ध आदि की प्रतीति नहीं होती, उनमें भी
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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