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तत्वार्थ सूत्रे
इत्येवं सर्वं कालापेक्षमेव - आप्ता व्यवहरन्ति । एवम् - ह्यः श्वोऽद्य इदानीम् ऐष मः पत् परारि नक्तं दिवा सायं प्रातः - इत्यादि कालवचनानि तावत् कालस्याऽसद्भावेनोपपद्येरन् । तस्मात् कालपदार्थोऽवश्यमेवाऽभ्युपगन्तव्यः ।
परिणामस्तावत् - पुद्गलादिद्रव्यस्य स्वजात्यपरित्यागेन परिस्पन्दभिन्नप्रयोगजन्यपर्यायस्वभावः उच्यते, तद्यथा— अङ्कुरावस्थस्य वनस्पतिकायस्य मूल- काण्डत्वक् - पत्र-स्कन्ध-शाखा - विटप- पुष्प-फल सद्भावस्वरूपः परिणामो भवति, अयमङ्कुर आसीत् सम्प्रति स्कन्धवान् संवृत्तः, हायनेऽस्मिन् पुष्पिष्यति--फलिष्यतिचेति, पुरुषजीवद्रव्यस्य वा बाल्य - शैशव - पौगण्ड-यौवनवार्धकाद्यवस्था सद्भावलक्षणः परिणामो भवति ।
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सच - परिणामो द्विविधः, अनादिः - सादिश्च तत्राऽमूर्त्तेषु धर्माधर्माकाशकालजीवेषु - अनादिपरिणामः, मूर्तेषु पुनः - अन्द्रधनुरादिषु स्तम्भकुम्भादिषु च सादिः परिणामो बोध्यः ।
एवं, हेमन्त १ शिशिर - २ वसन्त - ३ ग्रीष्म - ४ वर्षा - ५ शरत्-६ संज्ञकाः षड्ऋतवोऽपि एकस्य-कालस्यैव शक्तिभेदाः परिणामविशेषाः प्रतिविशिष्टकार्यप्रसवाऽनुमेया भवन्ति ।
“तथाहि—हैमन्ते- तुषारपातप्रम्लानानि भवन्ति कार्पासादिकाननानि, पथिकाश्च सङ्कुचितकरकमला: क्वणद्दन्तवीणाः वेपमानशरीरयष्टयः प्रत्यग्निशलभा इव पतन्तः संलक्ष्यन्ते, पवनाश्च- तुषारकण सम्पर्कतोऽतिशय शिशिराः जीवानायासयन्तः प्रवान्ति - १
पुरुष इसी प्रकार व्यवहार करते हैं । इसी प्रकार गया कल, आगामी कल, आज, अब, अभी, परसों नरसों, सुबह, प्रातः, इत्यादि व्यवहार कालवाचक प्रयोग काल के अभाव में नहीं हो सकते । अतः कालद्रव्य अवश्य ही स्वीकार करना चाहिए ।
परिणाम पुद्गल आदि द्रव्यों की एक पर्याय है जो अपनी जाति का त्याग न करते हुए परिस्पन्द से भिन्न प्रयोग के द्वारा जनित होता है । जैसे- अंकुर अवस्था वाले वनस्पतिकाय के मूल, काण्ड, त्वचा, पत्र, स्कंध, शाखा, विटप, पुष्प, फल का सद्भाव रूप परिणाम होता है । यह अंकुर था, अब स्कंधवान् हो गया, इस वर्ष में यह फूलेगा, फलेगा । पुरुष जीवद्रव्य का परिणाम शैशव, बाल्य, पौगंड, यौवन, बुढ़ापा आदि है ।
परिणाम दो प्रकार का है - अनादि और सादि । अमूर्त धर्म, अधर्म, आकाश, काल और जीव में अनादि परिणाम होता है और मूर्त्त मेघ, इन्द्रधनुष आदि में तथा स्तंभ कुंभ आदि में सादि परिणाम होता है ।
इसी प्रकार (१) हेमन्त ( २ ) शिशिर ( ३ ) वसन्त ( ४ ) ग्रीष्म ( ५ ) वर्षा और ( ६ ) शरद नामक छह ऋतुए भी काल के ही शक्तिभेद रूप परिणाम विशेष हैं, जिनका विभिन्न कार्यों की उत्पत्ति से अनुमान किया जाता है । जैसे कि हेमन्त ऋतु में कपास आदि के कानन तुषारपात - हिम से मुरझा जाते हैं, पथिकों के कर-कमल सिकुड़ जाते हैं, उनकी दन्तवीणा बजने लगती है, शरीर थर-थर काँपने लगता है और वे प्रर्तगों की तरह आग की तरफ टूट पड़ते हैं । तुषारकणों के सम्पर्क से अत्यन्त शीतल वायु जीवों को क्लेश उत्पन्न
करती है ।