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________________ तत्वार्थ सूत्रे तस्यैवा--ऽवगाहलक्षणत्वात् तत्र धर्माधर्मप्रदेशानां लोकाकाशप्रदेशाभ्यन्तरवर्तितया - sलोकाकाशेऽसम्भवात् ते धर्माधर्मप्रदेशाः अलोकाकाशान्ताल्लोकाकाशप्रदेशनिर्विभागवर्तित्वेनाऽवस्थिता भवन्ति । तस्मात्-अन्तरावकाशदानेन धर्माधर्मयोरुपकारं करोति, पुद्गलानां जीवानाञ्च स्वल्पतरासंख्येयप्रदेशव्यापित्वात् क्रियावत्वाच्च संयोगैर्विभागैश्चोपकारं करोति । २३२. एवञ्च अन्यत्राऽवगाढाः सन्तो मनुष्यमृल्लोष्ठखण्डादयः पुनरन्यत्रोपलभ्यन्ते, सर्वत्र चाऽभ्यन्तरेऽवकाशदानादेकोऽपि अवगाहोऽवगाह्योपाधिभेदादनेक इव लक्ष्यते । तथाच - जीवपुदगलानामन्तःप्रवेशसम्भवेन संयोगविभागैश्चोपकारं करोति. । अथ जीवपुद्गलानां गतिस्थितिलक्षणे धर्माधर्मयोरूपकार आकाशस्यैव सर्वगतत्वादभ्युपगन्तव्य इति चेन्मैवम्, आकाशस्यावगाहलक्षणोपकारसद्भावेन तस्य गतिस्थित्युपकारकल्पनाया असम्भवात्, षण्णामपि धर्मादीनां द्रव्याणामवगाहदानस्याकाशप्रयोजनत्वात्, एकस्याऽनेकप्रयोजनकल्पनायां लोकालोकविभागो न स्यात् । अथापि पृथिवी जलादीनामेव जीवपुद्गलादिगतिस्थितिप्रयोजनसमर्थत्वात् तदर्थं धर्माधर्मयोरनावश्यकत्त्वमितिचेन्न. जीवपुद्गलादीनां गतिस्थितिनियामकतया धर्माधर्मयोरसाधारणकारणत्वात् एकस्य - कार्यस्याऽनेककारणसाध्यत्वाच्च तदर्थं धर्माधर्माभ्युपगमस्य परमावश्यकत्वात्. । चाहिए; क्योंकि लोकाकाश में ही अवगाह लक्षण घटित होता है । धर्म और अधर्म द्रव्य के प्रदेश लोकाकाश के प्रदेशों के साथ ही मिले हुए रहते हैं और वे अलोकपर्यन्त सम्पूर्ण लोकाकाश में भरे हुए हैं। इस कारण लोकाकाश अपने अन्दर अवकाश देकर धर्म-अधर्म का उपकार करता है। पुद्गल और जीव स्वल्पतर असंख्यातवें भाग में व्याप्त होने से और क्रियावान् होने से संयोग और विभाग के द्वारा उनका उपकार करता है । इस प्रकार एक जगह अवगाहे हुए मनुष्य, मृत्तिका, लोष्ठखण्ड आदि पुनः दूसरी जगह पाये जाते हैं । सर्वत्र अन्दर अवकाश देने के कारण एक अवगाह भी अवगाह्य रूप उपाधि के भेद से अनेक सा प्रतीत होता है । अतएव जीव पुद्गल आदि का अन्दर प्रवेश होने से तथा संयोग — विभाग के द्वारा वह उपकार करता है । शंका - जीवों और पुद्गलों का गतिरूप धर्मका उपकार और स्थितिरूप अधर्म का उपकार आकाश का ही स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि आकाश सर्वव्यापी है । समाधान – आकाश का उपकार अवगाह है, अतएव गति और स्थिति को आकाश का उपकार मानने की कल्पना नहीं की जा सकती । धर्म आदि समस्त द्रव्यों को अवगाह देना आकाश का प्रयोजन है । एक द्रव्य के अनेक प्रयोजन माने जाएंगे तो लोक और अलोक का विभाग नहीं होगा ! शंका- पृथ्वी जल आदि ही जीवों और पुद्गलों की गति एवं स्थिति रूप प्रयोजन में समर्थ हैं, उनके लिए धर्म और अधर्मद्रव्य की कल्पना करना अनावश्यक है । समाधान जीवों और पुद्गलों की गति और स्थिति के नियामक होने में धर्म और
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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