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तत्त्वार्थसूत्रे स्वप्रतिष्ठं भवति तथा धर्मादीनामपि स्वप्रतिष्ठत्वसिद्धया न तेषामाधार आकाशः यदि तु धर्मादीनामन्य आकाशात्मक आधारः कल्प्यते, तदाऽऽकाशस्यापि अन्य आधारः कल्पनीयः स्यात् तथासति अनवस्थादोषप्रसङ्ग इति चेन्न । . आकाशादधिकपरिमाणस्याऽन्यस्य द्रव्यस्याऽसद्भावेन तस्याऽऽकाशाधारतया कल्पयितुमशक्यत्वात् । आकाशमेव सर्वतोऽनन्तं वर्तते तस्माद् व्यवहारनयानुसारेणाऽऽकाशं धर्मादीनामधिकरणतया कल्प्यते, निश्चयनयात्मकैवंभूतनयापेक्षया पुनः सर्वाणि द्रव्याणि स्वप्रतिष्ठितान्येव सन्ति अतएव "क भवानास्ते" ? इति प्रश्ने सति "आत्मनि" इत्युत्तरं भवति, तथाच धर्मादीनि न लोकाकाशाद् बहिः सन्तीति एतावन्मात्र मत्राधाराधेयभावकल्पनो साध्यो व्यवहार उपपद्यते । ___ अथ लोके यथा कुण्डे बदरादीनां पूर्वोत्तरकालभाविनामाधाराधेयभावो दृष्टो न तथाऽऽकाशं पूर्व धर्मादीनि पुनरुत्तरकालभावीनि सन्ति इति व्यवहारनयापेक्षयापि नो आकाशधर्मादीना माधाराधेयभावकल्पनोपपद्यते इति चेन्मैवम् ।
घटे रूपादयः शरीरे हस्तादयः इत्य दो युगपद्भाविनामपि पदार्थानामाधाराधेयभावदर्शनात्
समाधान-लोकाकाश आप ही अपने सहारे टिका है । उसके लिए किसी अन्य आधार की आवश्यकता नहीं है।
__ शंका-जैसे आकाश आप ही अपने सहारे रहा हुआ है। उसी प्रकार धर्मादि भी अपने सहारे रह सकते हैं । उनका आधार आकाश मानने की क्या आवश्यकता है ? यदि धर्मादि का अलग आधार-आकाश-स्वीकार किया जाता है तो आकाश का भी अन्य आधार नहीं मानना चाहिए । ऐसी स्थिति में अनवस्था दोष का प्रसंग होगा।
समाधान-आकाश से अधिक परिमाण वाला अन्य कोई द्रव्य नहीं है, जिसे आकाश का आधार माना जाय । आकाश सब ओर से अन्तरहित है । अतएव व्यवहारनय के अनुसार आकाश धर्मादि द्रव्यों का आधार मानागया है, किन्तु निश्चयनयरूप एवंभूतनय की अपेक्षा से सभी द्रव्य स्वप्रतिष्ठित हैं अर्थात् सभी अपने--अपने प्रदेशों में रह गए हैं। इसी कारण जब यह प्रश्न किया जाता है कि आप कहाँ रहते हैं ? तब उत्तर होता है-'अपने आप में ।' धर्मादि द्रव्य लोकाकाश से बाहर नहीं रहते और लोकाकाश में ही रहते हैं, बस इसी कारण उनमें आधार-आधेयभाव की कल्पना की जाती है।
शंका-लोक में ऐसा देखा जाता है कि जो पूर्वोत्तर कालभावी होते हैं, उन्हीं में आधार-. आधेयभाव होता है, जैसे कुंड और बदर का । यहाँ ऐसा तो है नहीं कि आकाश पहलेसे हो और धर्मादि बाद में हों । इस कारण व्यवहारनय के अनुसार भी आकाश और धर्मादि में आधाराधेयभाव की कल्पना नहीं की जा सकती।
समाधान-पूर्वोत्तरकालीन पदार्थों में ही आधाराधेयभाव हो, ऐसा नियम नहीं है। घट में रूप है, शरीर में हाथ आदि हैं, यहाँ एक साथ होने वाले पदार्थों में भी आधाराधेय भाव