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तरवार्थसूत्रे अथ-एकनयप्ररूपणं न जैनदर्शनपरिपूर्णाय पर्याप्तं सम्भवति, द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनययोः प्रधानगुणभावविवक्षावशाद् वस्तुतत्त्वस्य प्रतिपादनात् । अन्यथा वस्तुप्रज्ञापनमतिदुष्करं न भवेत् तस्माद् अभिन्नांशस्य वस्तुनो नरसिंहवत् नरकेसरिशब्दभेदेन प्रज्ञापना क्रियते, तत्र-द्रव्यार्थिकनयस्य प्राधान्यमाश्रित्य पर्यायार्थिकनयादेश्च गुणभावमाश्रित्य धर्मादिद्रव्याणां नित्यता प्रज्ञाप्यते ।
तथाच-द्रव्यार्थिकनयप्रज्ञाप्यं ध्रौव्यांशमादाय धर्मादीनि द्रव्याणि नित्यानि उत्पाद-विनाशरहितानि ध्रुवाणि व्यपदिश्यन्ते । तथाच-धर्मादीनां सकलकलाऽविकारिणी सत्ताऽऽख्यायते नित्यत्वकथनेनेति भावः । एवं धर्मादीनि सर्वद्रव्यणि-अवस्थितानि भवन्ति, न हि कदाचित् तानि द्रव्याणि घटत्वसंख्यां भूतार्थत्वं च परित्यजन्ति-परित्यक्षन्ति वा,
अवस्थितशब्दोपादानेन तद्भावाऽव्ययतया तेषां षट्त्वसंख्यारूपेयत्ता निर्धार्यते । तथाचषडेव द्रव्याणि भवन्ति, न न्यूनानि, नाऽप्यधिकानि वा इति संख्या नियमोऽभिप्रेतः । सर्वदा जगतः पञ्चास्तिकायात्मक वेन कालस्यैतत् पर्यायत्वेऽपि भिन्नतया प्रतीयमानत्वात् षडेव द्रव्याणि न तु-पञ्चेति भावः । तानि च धर्मादीनि अन्योऽन्यावबन्धितायां सत्यामपि धर्मादीनि न स्वतत्त्वं भूतार्थत्वरूपं वैशेशिकं लक्षणमतिकामन्ति ।।
तच्च-भूतार्थत्वं धर्माऽधर्मयोर्गतिस्थित्युपग्रहकारित्वम् आकाशस्य-अवगाहदानव्यापारः, जीवानां स्वपरप्रकाशिचैतन्यपरिणामः, पुद्गलानामचैतन्यशरीरवाङ्मनःप्राणापानसुखदुःखजीवितमरणो
जैनदर्शन के अनुसार एकनय से वस्तु की प्ररूपणा करना पर्याप्त नहीं, द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक-दोनों में से एक को प्रधान और दूसरे को गौणरूप से विवक्षित करके ही वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन किया जा सकता है । ऐसा किये बिना वस्तुस्वरूप की प्ररूपणा करना बहुत कठिन है। अतएव यहाँ द्रव्यार्थिकनय को प्रधान और पर्यायार्थिकनय को गौण करके धर्म आदि द्रव्यों की नित्यता की गई है।
द्रव्यार्थिकनय द्वारा प्रज्ञाप्य ध्रौव्य अंश की अपेक्षा से धर्म आदि द्रव्य नित्य अर्थात् उत्पाद और विनाश से रहिम ध्रव हैं । नित्य कहकर यह प्रकट किया गया है कि धर्म आदि द्रव्यों की सत्ता समस्त काल में अविकारिणी है । इसी प्रकार धर्म आदि सब द्रव्य अवस्थित हैं अर्थात् वे अपनी छह की संख्या को और भूतार्थता को न कभी भी त्यागते हैं और न कभी त्यागेंगे।
__अवस्थित' शब्द के ग्रहण से यह निर्धारित किया गया है कि ये द्रव्य अपने स्वरूप का परित्याग नहीं करते, अतः छह ही रहते हैं। न कभी कम होते हैं और न अधिक ही। जगत् सदा पंचास्तिकायात्मक है और काल पर्याय होने पर भी भिन्न रूपसे प्रतीत होता है, अतः छ ही द्रव्य हैं, पाँच नहीं । ये धर्म आदि द्रव्य आपस में मिलेजुले रहते हैं, फिर भी अपने अपने स्वरूप को और भूतार्थता को नहीं त्यगते हैं और न अपने विविध असाधारण लक्षण का उल्लंधन करते हैं ।
धर्मद्रव्य का स्वरूप गति में और अधर्मद्रव्य का स्वरूप स्थिति में निमित्त होता है। आकाश