________________
तत्त्वासने
संघीभूतशुष्कतृणराशिवह्निवत् । यथाहि-संघीभूतस्यैकत्रितस्य शुष्कस्यापि तृणपुञ्जस्याऽकयशः क्रमेण दह्यमानस्य चिरकालेन दाहों भवति, तस्यैव पुनः शिथिलविकीर्णोपचितस्य समन्तात् युगपदेव सन्दीपितस्य पवनीपक्रमाभिहतस्याऽऽशु दाहो जायते शीघ्रमेव सर्व भस्मसात् सम्पद्यते, ।
___ एवमेवायुषोऽप्यनुभवो बोध्यः । तथाच यदा-ऽऽयुदृढसंहतमतिघनतया बन्धनकाले एव परिणामापादितं भवति पवनसंसर्गवत् तत् क्रमेण वेद्यमानं चिरकालेन वेद्यते, यत्तु आयुष्कं कर्मबन्धकाले एव शिथिलमाबद्धं तद् विप्रमाणविकीर्णतृणपुञ्जदाहक्दपवाऽऽशु वेद्यते इति ।। ४१ ।। इति श्री-विश्वविख्यातजगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पश्चदशभाषाकलितललितकलापालापक
प्रविशुद्धगधपंद्यानैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक शाहुच्छत्रपति कोल्हापुरराज. प्रदत्त जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलाल-व्रतिक्रि
दीपिका-नियुक्ति टीकाद्वयोपेतस्य तत्त्वार्थसूत्रस्य
प्रथममध्ययनं समाप्तम् ।
-
जैसे एकत्र किये हुए सूखे घाम के ढेर को एक ओर से जलाया जाय तो क्रम से जलता हुआ वह ढेर चिरकाल में भस्म होता है और वही ढेर यदि पोला हो और सब तरफ से एक साथ आम लगाई जाय और तेज हवा चल रही हो जल्दी जल जाता है और शीघ्र ही भस्म हो जाता है। आयु के भोग के विषय में भी ऐसा ही समझना चाहिए ।
जो आयु बन्ध के समय अत्यन्त गाढ़ रूप में निकाचित रूप में बाँधा जाता है, वह धीरे-धीरे चिरकाल में भोगा जाता है, किन्तु जो आयु कर्मबन्ध के समय . ही शिथिल रूप में वाँधा गया है, वह शिथिल घास के ढेर के दाह के समान अपवर्तित होकर जल्दी वेदन किया जा सकता है । ॥४१॥
जैनशास्त्राचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलालजी महाराज विरचित तत्वार्थ सूत्रकी दीपिका एवं नियुक्ति नामक व्याख्या का प्रथम अध्ययन
समाप्त ॥१॥