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________________ तत्वार्यसूत्रे न तु-लघुपटोद्राघियमानमापादयितुं शक्यते । एवम्-आयुरपि, अल्पानुपात्ततावदलिकत्वाद् दीर्घ कर्तुं न शक्यते । अपवर्तनीयानि पुनरायूंषि नियमतः सोपक्रमाणि भवन्ति । तथाच सोपक्रमाण्येवाऽपवर्तनीयानि भवन्ति सर्वदाऽऽयूंषि इति फलितम् । अध्ययसानादिकं मिमित्तं बिनाऽपवर्तना म प्रतिपद्यते । एवञ्च-तदनुसारेणाऽकालमृत्युरपि सम्भवतीति भावः । “अयम्भावः-त्रिभागावशेषायुषो मवभागशेषायुषः सप्तविंशतिभागावशेषायुषो बा जीवाः परमवायुर्वघ्नन्ति. तत्र-पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पति द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियाः निरुपक्रमायुश्च पञ्चेन्द्रिया नियमत एव त्रिभागावशेषे आयुर्बध्नन्ति । वाले आयु अल्पकाल में ही जल्दी-जल्दी भोग लिया जाता है; जैसे एक मास में पकने वाले वृक्ष में लगे फल को तोड़ कर यदि पाल में डाल दिया जाय तो वह दो-तीन दिन में पक जाता है, और एक मास में होने वाली फल के परिपाक की विभिन्न अवस्थाएँ पाल में दबाये फल में भी होती है मगर वे जल्दी-जल्दी हो जाती हैं। इसी प्रकार जीव ने आयु कर्म के जितने प्रदेशों का बन्धन किया है वे सब तो उदय में आए बिना निर्जीर्ण हो नहीं सकते । चाहे सोपक्रम आयु हो अथवा निरुपक्रम, सम्पूर्ण आयु भोगना ही पड़ता है। अन्तर केवल इतना ही होता है कि विष अग्नि आदि उपक्रम मिलने पर, दीर्घ काल में जो आयु भोगे जाने वाली था, वह शीघ्र उदय में आ जाता और भोग लिया जाता है। ऐसी स्थिति में आयु की वृद्धि किस प्रकार हो सकती है ? अमृत-रसायन का सेवन करने पर भी बद्ध आयु बढ़ नहीं सकता । लम्बे फैले हुए वस्त्र को लपेट कर थोड़ी जगह में समाया जा सकता है किन्तु और अधिक लम्बा नहीं किया जा सकता । इसी प्रकार जिस आयु के दलिक थोड़े बाँधे गए हैं, उसे लम्बा करना शक्य नहीं है। जो आयु अपवर्तनीय होता है, वह नियम से सोपगि होता है। अतएब यह फलित हुआ कि अपवर्तनीय आयु सर्वदा सोपक्रम ही होता है, क्योकि मध्यसाय आदि निमित्त के बिना अपवर्तनीय हो नहीं सकता । इस प्रकार आयु की अपवर्सना ही लोक में अकालमरण के रूप में प्रसिद्ध है। वस्तुतः कोई भी प्राणी अधूरी आयु भोग कर नहीं मरता । भाव यह है-भुज्यमान आयु के तीन भागों में से दो भाग जब व्यतीत हो जाते है और तीसरा भाग शेष रहता है तब परभव की आयु का बन्ध होता है । कदाचित् उस समय बन्ध न में तो नौवाँ भाग शेष रहने पर बन्ध होता है और उस समय भी बन्ध न हुआ तो भुमान आयु अन्तर्मुहर्त शेष रहने पर तो अवश्य ही बंध होता है । अन्य सात कर्मों की तरह आयु निरन्तर बन्ध नहीं होता, जीवन में एक बार ही बन्ध होता है। पृथ्वीकाय ,अप्काय तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और निरुपक्रम आयु वाले केन्द्रिय तिर्यश्च और मनुष्य नियम से वर्तमान आयु का तीसरा भाग शेष रहने पर नवीन आयु
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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