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तत्वार्थ सूत्रे
चतुर्दशपूर्वधरश्च द्विविधः भिन्नाक्षरः - अभिन्नाक्षरश्च । तत्र - -यस्यैकैकमक्षरं श्रुतज्ञानगम्यपर्यायैः सत्कारिकाभेदेन भिन्नम् - वितिमिरामितं - संशयरहितं भवति स भिन्नाक्षरो व्यपदिश्यते । तस्यच - भिन्नाक्षरस्य श्रुतज्ञानसंशयापगमात् प्रश्नो नोपपद्यते । अतएव - स भिन्नाक्षरः श्रुतकेबली उच्यते, तदन्योऽभिन्नाक्षर आहारकलब्धितामपि करोति कृत्स्नश्रुतज्ञानालाभात् - अवीतरागत्वाच्च ।
एवंविधश्चतुर्दश पूर्वघर एवं सञ्जातलब्धिराहारकं निर्वर्तयति । स च - प्रमत्तसंयतो व्यपदिश्यते, तस्य चाहारकलब्धेराश्रयणे कारणं तु - पुनरिदमेव भाति यत् श्रुतज्ञानगम्ये कस्मिंश्चिदेवार्थेऽत्यन्तगूढतरे सन्दिहानः सन् तदर्थनिश्चयाय विदेहादिक्षेत्रवर्तिनस्तीर्थकृतः पादारविन्दनिकटे औदारिकेण शरीरेण गन्तुं कथमपि न पार्यते इति विचार्य सञ्जातर्द्धिविशेषो लब्धिप्रत्ययमेवाहारकं शरीरमुपजनयति नाऽन्यप्रत्ययम् ।
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तत्र गत्वा—–यदि तत्र तीर्थकरमन्यत्रगतं जानाति । तदा - तस्मादाहारकशरीरादन्यद्बद्धमुष्टिप्रमाणं शरीरं निःसृत्य यत्र भगवान् वर्तते तत्र गत्वा शीघ्रं भगवन्तमालोकित सकललोकालोकं विलोक्य - प्रणम्य - पृष्ट्वा च विच्छिन्नसंशयः पापरहितः पुनरागत्य तमेव देशं यत्र गच्छता तद् आहारकमनाबाधबुद्धा न्यासवन्निक्षिप्तं स्वप्रदेशजालावबद्धं तदवस्थमास्ते ।
हो जाने के कारण प्रश्न उत्पन्न नहीं होता । अभिन्नाक्षर आहारक लब्धि का प्रयोग करता है, क्योंकि उसे सम्पूर्ण श्रुतज्ञान प्राप्त नहीं होता और वह वीतराग नहीं होता है ।
इस प्रकार का चतुर्दश पूर्वधर ही आहारक लब्धि प्राप्त करके आहारक शरीर बनाता है । वह प्रमत्तसंयत कहलाता है ।
प्रमत्तसंयत और चौदह पूर्वो का धारक मुनि आहारक लब्धि का आश्रम क्यों लेता है ? इसका कारण यही जान पड़ता है कि- श्रुतज्ञान के गोचर किसी अत्यन्त गूढ़ पदार्थ में उसे संशय उत्पन्न होता है तब उसका समाधान प्राप्त करने के लिए उसे तीर्थंकर भगवान् के चरणकमलों में जाना अनिवार्य हो जाता है किन्तु विदेह आदि दूरवर्ती क्षेत्र में औदारिक शरीर से जाना संभव नहीं होता । ऐसी स्थिति में वह अपनी पूर्वप्राप्त लब्धि का उपयोग करता है और उससे आहारक शरीर का निर्माण करके उसे तीर्थंकर के पादमूल में भेजता है या यों कहना चाहिए कि वह उस शरीर के द्वारा स्वयं भगवान् के चरण कमलों के निकट उपस्थित होता है ।
वहाँ पहुँचने पर यदि पता चले की तीर्थकर भगवान् विहार करके कहीं अन्यत्र चले गए हैं तो उस आहारक शरीर से बद्धमुष्टि हस्त प्रमाण दूसरा आहारक शरीर निकलता है और वह दूसरा आहारक शरीर तीर्थंकर भगवान के निकट जाता है, वहाँ जाने पर शीघ्र ही भगवान् के दर्शन करके, उन्हें नमस्कार करके और प्रश्न करके संशय हीन हो जाता है । जब उसका संशय निवृत्त हो जाता है तो लौटता है । दूसरा आहारक शरीर पहले आहारक शरीर में समाहित हो जाता है और प्रथम आहारक शरीर मूल शरीर में समा जाता है । इस प्रकार अपने प्रयोजन को सिद्ध करके वह मुनि तदवस्थ- थ-ज्यों का त्यों- हो जाता है ।