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________________ ११४ तत्त्वार्थसूत्रे तस्याश्च बहिराम्रकलिकाकारामांसमञ्जयों भवन्ति ताः खलु किल-]शोणितं स्फुटीत्वा ऋतौ स्रवन्ति । तत्र-कियन्तः शोणितलवाः कोशकाकृतिं योनिमनुप्रविश्य सन्तिष्ठन्ते । पश्चाच्छुक्रसंमिश्रां स्तानाहारयन् जीवस्तत्र जायते । तत्र ये योन्यात्मसात्कृतास्ते सचित्ताः कदाचिन्मिश्रा इति । ये पुनर्न स्वरूपतामापादितास्तेऽचित्ता भवन्ति, सम्मूछिमतिर्यग्मनुष्याणां मध्ये गोकृम्यादीनां सचित्ता काष्टघुणादीनामचित्ता योनि भवति । कषांचित् पूर्वकृते क्षते समुद्भवतां मिश्रा सचित्ताचित्ता योनिर्भवति । गर्भव्युत्क्रान्तिकानां तिर्यग्मनुष्याणां देवानां च शीतोष्णा योनि भवति । सम्मछिमतिर्यग्मनुष्याणां मध्ये कस्यचिच्छीता, कस्यचिदुष्णा, कस्यचित् शीतोष्णा योनिभवति । स्थानविशेषप्रभावात् प्रथमतः त्रिषु नरकेषु योनयः शीता भवन्ति पुनः कुम्भीतो बहिर्निर्गताः सत्यः क्षेत्रवेदना उष्णा भवति । षष्ठ सप्तमयोर्योनय उष्णा भवन्ति पुनः कुम्भीतो बहिर्निर्गताः सत्यः वेदनाः शीता भवन्ति कुम्भ्यां तु अल्पसमये एव तिष्ठन्ति पुनः शेषं बहिरायुः पूर्णं भवति, तत्क्षेत्रं च तस्य प्रतिकूलं भवति । उष्णवेदनातः शीतवेदना भयकारिणी भवति शेषं स्पष्टम् ।। ___ अथ चतुरशीतिलक्षा योनयःप्रवचने प्रतिपादिताः सन्ति । तथाहि-पृथिव्यप्तेजोवायूनां प्रत्येक सप्तसतयोनिलक्षाः प्रत्येकवनस्पतीनां दश, साधरणानां चतुर्दशा द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियाणां प्रत्येकं द्वे-द्वे लक्षे, तदतिरिक्ततिर्यङ्नाकदेवानां प्रत्येकं चतस्रश्चतस्रो लक्षाः मनुष्याणां चतुर्दशलक्षाः इति सर्वसम्मिलितेन चतुरशीतिलक्षा योनयो भवन्ति प्रकृते च प्रत्येकं नवयोनय एव प्रतिपाद्यन्ते इति परस्परं विरोधापत्तिरिति चेत्कोशाकार योनि में प्रवेश करके स्थित हो जाते हैं । पश्चात् शुक्र से मिश्रित उन रुधिर कणों को जीव ग्रहण करता है । जो रुधिर कण अपने स्वरूप में नहीं रहते, वे अचित्त हो जाते हैं। सम्मूछिम तिर्यंचों और मनुष्यों में से गाय की कृमि आदि जीवों की योनि सचित्त होती है और काठ के घुन आदि की योनि अचित्त होती है। पूर्वकृत घाव में उत्पन्न होने वाले किन्हीं किन्हीं कीड़ों की मिश्रण अर्थात् सचित्ताचित्त योनि होती है । गर्भज तिर्यचों, मनुष्यों और देवों की शीतोष्णयोनि होती है । ___ संमूर्छिम तिर्यंचों और मनुष्यों में किसी की शीत, किसी की उष्ण और किसी की शीतोष्ण योनि होती है। स्थानविशेष के प्रभाव से यह योनिभेद होता है। पहले तीन नरकों में योनि शीत है और कुंभी से बाहर निकलने पर क्षेत्र वेदना उष्ण है। छठी सातवीं में योनि उष्ण है, और कुम्भी से बाहर निकलने पर वेदना शीत है। कुम्भी में तो थोड़ी देर ही रहते हैं और शेष आयुष्य बाहर ही पूरा होता है और वह क्षेत्र उनके प्रतिकूल होता है। उष्ण वेदना से शीत वेदना भयंकर होती है । आगम में चौरासी लाख योनियों का प्रतिपादन किया गया है। वे इस प्रकार हैं-पृथ्वी अप, तेज और वायुकाय की सात-सात लाख योनियाँ हैं, प्रत्येक वनस्पति की दश लाख साधारण वनस्पति की चौदह लाख, द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय की दो-दो लाख, शेष तिर्यचों, नारकों और देवों की चार-चार लाख और मनुष्यों की चौदह लाख योनियाँ हैं । ये सब मिलकर चौरासी लाख होती हैं । ... आशंका हो सकती है कि योनियाँ यदि चौरासी लाख हैं तो यहाँ सिर्फ नौ का ही
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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