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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भावना Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपागं पिय सरणं खमादि-भावेहि परिणदं होदि । तिव्यकसायाविट्ठो अयाणं हणदि अपेण ॥ ११ ॥ ३१ ३ संसार एक चजति सरीरं अण्णं गिव्हेदि णवणवं जीवो । पुणु अष्णं अण्णं हिदि मुंचेदि वहुवारं ॥ १२ ॥ ३२ एक जं संसरणं णाणादे हेतु हवदि जीवस्स । सो संसारो भणदि मिच्छक सायेहिं जुत्तस्स ॥ १३ ॥ ३३ इ संसारं जाणिय मोहं सव्वायरेण चइऊण । तं झायह ससहावं संसरणं जेण णासेइ ॥ १४ ॥ ७३ ४ एकत्व इको जीवो जायदि इक्को गन्मम्मि गिहदे देहं । इक्की बाल- जुवाणो इक्को बुढो जरागहिओ ॥ १५ ॥ ७४ इक्को रोई सोई इक्को तप्पेइ माणसे दुवखे । इको मरदि वराओ णरयदुहं सहदि इक्को वि ॥ १६ ॥ ७५ सव्वायरेण जाणह इक्कं जीवं सरीरदो भिण्णं । अम्हि दु मुणिदे जीवे होइ असेसं खणे हेयं ॥ १७ ॥ ७९ ५ अन्यत्व अणं देहं हिदि जणणी अण्णा य होदि कम्मादो | अण्णं होदि कलन्तं अण्णो वि य जायदे पुत्तो ॥ १८ ॥ ८० एवं बाहिरदव्वं जादि रूवा हु अप्पणो भिण्णं । जाणतो वि हु जीवो तत्थेव य रच्चदे मूढो ॥ १९ ॥ ८१ जो जाणिऊण देहं जीवसरूपादु तच्चदो भिष्णं । अप्पाणं पिय सेवदि कज्जकरं तस्स अण्णत्तं ॥ २० ॥ ८२ ६ अशुचिल सयलकुहियाण पिंडं किमिकुलकलियं अउव्वदुग्गंधं । मलमुत्ताणं गेहं देहं जाणेह असइमयं ॥ २१ ॥ ८३ For Private And Personal Use Only २७
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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