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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Achar Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मार्गणा-स्थान जिन भावोंके द्वारा जिन पर्यायोंमें जिस प्रकारसे जीवोंका श्रुतज्ञानमें विचार किया गया है वे तथा निर्दिष्ट चौदह मार्गणायें जानने योग्य हैं ॥१॥ गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहार, ये चौदह मार्गणा हैं ||२|| १ गति मार्गणा गति नामकर्मके उदयसे होनेवाली जीव की पर्यायको, अथवा चारों गतियों में गमन करनेके कारणको, गति कहते हैं। उसके चार भेद हैं: नरकगति, तिर्यगगति मनुष्यगति और देवगति ॥३॥ २ इन्द्रिय मार्गणा इन्द्रियके दो भेद हैं-एक भावेन्द्रिय, दूसरी द्रव्येन्द्रिय । मतिज्ञानावरण कर्मके श्योपशमसे उत्पन्न होनेवाली विशुद्धि, अथवा उस विशुद्धिसे उत्पन्न होने वाले उपयोगात्मक ज्ञानको भावेन्द्रिय कहते हैं। और, शरीर नाम कर्म के उदयसे होनेवाले शरीरके चिहविशेषको द्रव्येन्द्रिय कहते हैं ||४|| जिन जीवों के बाह्य चिह्न (द्रव्यन्द्रिय) और उसके द्वारा होनेवाला स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द, इन विषयों का ज्ञान हो उनको क्रमसे एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव कहते हैं। इनके भी अनेक अवांतर भेद हैं ॥५॥ ३ काय मार्गणा जाति नामकर्मके अविनाभावी बस और स्थावर नामकर्मके उदय होने. वाली आत्माको पर्यायको जिनमतमें काय कहते हैं। इसके छह भेद हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस ॥६॥ पृथिवी, अप , तेज (अग्नि) और वायु, इनका शरीर नियमसे अपने अपने पृथिवी आदि नामकर्मके उदयसे, अपने आने योग्य रूप, रस, गन्ध व स्पर्श इन चार गुणोंसे युक्त पृथिवी आदिकमें ही बनता है ||७|| For Private And Personal Use Only
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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