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(३) वीर्यानु प्रवाद (४) अस्ति-नास्ति प्रवाद (५) ज्ञान प्रवाद (६) सत्यप्रवाद (७) आत्मप्रवाद (८) कर्मप्रवाद (९) प्रत्याख्यानवाद (१०) विद्यानुवाद (११) कल्याणवाद (१२) प्राणवाद (१३) क्रियाविशाल, और (१४) लोक बिन्दु सार । चूलिका में जल, स्थल, माया, रूग और आकाश गत नाना मंत्रों तंत्रों का विवरण था।
यह द्वादशांग आगम श्रुतज्ञान के रूप में गुरुशिष्य परम्परा से प्रचलित हुआ। किन्तु उस प्रकार वह चिरकाल तक सुरक्षित न रह सका। महावीर भगवान के निर्वाण से १६५ वर्ष पश्चात् श्रुतकेवली भद्रबाहु तक तो पूरा श्रुतज्ञान बना रहा, किन्तु उसके पश्चात् बारहवें अंग दृष्टिवाद केज्ञान का ह्रास हुआ
और फिर उसी क्रम से शेष अंगों का भी ज्ञान व्युच्छिन्न और त्रुटित हो गया। यहां तक कि निर्वाण से ६८३ वर्ष पश्चात् कुछ थोड़े से आचार्यों को ही इस श्रुतांग का खण्डश : ज्ञान अवशेष रहा। इन खण्डश: श्रुतांग धारियों को परम्परा में आचार्य धरसेन हुए जिन्होंने सौराष्ट्र देश के गिरिनगर को चन्द्रगुफा में रहते हुए अपनी आयु के अन्त में वह ज्ञान आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि को प्रदान किया। इन आचार्यों ने उसी श्रुतज्ञान को कर्मप्राभृत अपरनाम षट्खंडागमसूत्र के रूप में भाषा-निबद्ध किया। यह ग्रंथ-रचना ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को पूर्ण हुई थी। इसी कारण जैनी उस दिन अभी तक श्रुत पंचमी मनाते और श्रुत की पूजा करते हैं। इसी प्रकार एक दूसरे श्रुतज्ञानी आचार्य गुणधर ने कषायप्राभृत ग्रंथ की रचना की। नवमीं शताब्दी में आचार्य वीरसेन ने षट्खंडागम सूत्रों पर धवला नामक टोका लिखी और कषाय-प्राभत पर वीरसेन और उनके शिष्य जिनसेन ने 'जयधवला' नामक टीका लिखी। ये टीकाएं मणिप्रवालन्याय' से अधिकांश प्राकृत में और कहीं कहीं संस्कृत में रची गई हैं। ये ही ग्रंथ दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में धवल सिद्धान्त और जयधवल सिद्धान्त के नाम से प्रख्यात हैं और सर्वोपरि प्रमाण माने जाते है । षट्खंडागम का छठा खंड भूतबलि आचार्य कृत 'महाबन्धा है और यही रचना महाधवल के नाम से विख्यात है। इन मंथों-मूल व टीकाओं की प्राकृत भाषा जैन शौरसेनी' कही जाती है।
यह है दिगम्बर परम्परा का संक्षिप्त विवरण । श्वेताम्बर परम्परानुसार द्वादशांग आगम का सर्वथा लोप नहीं हुआ। निर्वाण के पश्चात् अनेक बार आगम को सुव्यवस्थित करने के लिये मुनिसंघ की बैठकें हुई । अन्तिम बार निर्वाण से ९८० वर्ष पश्चात् विक्रम सं. ५१० में वलभी (गुजरात) में देवधिगणी क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में मनिसंघ की बैठक हुई जिसमें संकलित ग्रंथों की नामावली देवर्धिगणि कृत नन्दीसूत्र में पाई जाती है। वर्तमान में उपलब्ध ४५ ग्रंथरूप आगम उससे भी अनेक बातों में भिन्न है। इनमें पूर्वोक्त प्रथम ग्यारह अंगों के अतिरिक्त १२ उपांग, १० प्रकीर्णक, ६ छेदसूत्र, ४ मूलसूत्र और २ बुलिका सूत्र हैं। इनके नाम क्रमशः इस प्रकार है
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