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तत्त्व- समुच्चय
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इस तरह समझकर कुशल साधु स्त्रियोंके संगको कीचड़ जैसा मलिन मानकर उसमें न फंसे | आत्मविकासका मार्ग ढूंढकर संयममें ही गमन करे ||१७|| ९ चर्या परीपह
संयमी साधु, परीषहों को जीतकर गांव में, नगर में, व्यापारी बस्तीवाले प्रदेशमें अथवा राजधानीमें भी अकेला ही विचरण करे ||१८||
hari साथ समानताका भाव ग्रहण न करके भिक्षु एकाकी ( रागद्वेष रहित होकर ) विहार करे तथा वह किसी स्थानमें ममता न करे तथा वह गृहस्थोंसे अनासक्त रहकर किसी भी देश, काल, प्रमाणादिका नियम रखे बिना विहार न करे ||१९|| १० निषद्या परीषह
स्मशान, शून्य ( निर्जन ) घर अथवा वृक्षके मूलमें एकाकी साधु चिना शरीरकी कुचेष्टाओंके (स्थिर आसन से ) बैठे और दूसरोंको थोड़ासा भी त्रास न दे ॥ २० ॥
वद्दांपर बैठे हुए यदि उसपर उपसर्ग ( किसी के द्वारा जानबूझकर दिये गये कष्ट ) आर्वे, तो वह उन्हें दृढ़ मनसे सहन करे, किन्तु विपत्तिकी आशंका से भयभीत होकर वह न दूसरी जगह जाय और न उठकर अन्य आसन ग्रहण करे || २१॥ ११ शय्या परीषह
सामर्थ्यवान् तपस्वी (भिक्षु ) को यदि अनुकूल अथवा प्रतिकूल शय्या मिले तो वह कालातिक्रम ( कालधर्मकी मर्यादाका भंग ) न करे; क्योंकि "यह स्थान अच्छा है, इसलिये यहां अधिक काल ठहगे, यह स्थान बुरा है इसलिये यहां से जल्दी चलो " ऐसी पाप-दृष्टि रखनेवाला साधु अन्तमें आचार में शिथिल हो जाता है ॥२२॥
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प्रतिरिक्त अर्थात् शून्य व त्यक्त उपाश्रय पाकर चाहे वह अच्छा हो या बुरा इस एक रातके उपयोगसे भला मुझे क्या दुःख पहुँच सकता है " ऐसी भावना रखकर साधु वहां निवास करे ||२३||
१२ आक्रोश परीषह
यदि कोई भिक्षुको आक्रोश ( गालीगलौंज आदि कठोर शब्द ) कहे तो साधु बदले में कठोर शब्द न कहे, व क्रोध न करे, क्योंकि वैसा करनेसे वह भी मूर्खोकी कोटि में आ जायगा । इसलिये विज्ञ भिक्षु कोप न करे ||२४||
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