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पटूत्रिंशः स्तम्भः
७२७
भावार्थ:- पुरुषोंको ज्ञानही फल देता है, किया फल नही देती है. क्योंकि, विनाज्ञानके क्रिया करे तो, यथार्थ फल नही होता है. इसवास्ते ज्ञानीको प्राधान्यता है. तीर्थंकर गणधरोंने भी, एकले अगीतार्थको विहार करना निषेध करा है.
तथाच तद्वचनम् ॥
गीयत्थो य विहारो बीओ गीयत्थमीसिओ भणिओ || तो तइओ विहारो नाणुन्नाओ जिणवरिंदेहिं ॥ १ ॥
भावार्थ:- गीतार्थ विहार करे, वा गीतार्थ के साथ विहार करे, इन दोनों विहारों के विना, अन्य तीसरा विहार, तीर्थंकरोंका अननुज्ञात है, अर्थात् तीसरे विहारकी तीर्थंकरोंने आज्ञा नही दीनी है. अंधा अंधेको रस्ता नही बता सकता है, इति. यह तो क्षायोपशम ज्ञानकी अपेक्षा कथन है. क्षायिकज्ञानकी अपेक्षासें भी, विशिष्टफलका साधन ज्ञानही है. क्योंकि, अर्हन्भगवान्को भवसमुद्रके कांठे रहे दीक्षा लेके उत्कृष्ट तप चारित्रवान् होनेसें भी, मुक्तिकी प्राप्ति नही होती है, जबतक केवलज्ञान नही होता है. इसवास्ते ज्ञानही, पुरुषार्थका हेतु होनेसें, प्रधान है. । इति ज्ञाननयमतम् ॥
अथ क्रियानय । नायम्मीत्यादि - यहां ज्ञान ग्रहण करने योग्य अर्थमें, और न ग्रहण करने योग्य अर्थ में, सर्व पुरुषार्थकी सिद्धिवास्ते यत्न करना. यहां प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षण क्रियाहीकी मुख्यता है. और ज्ञान, क्रियाका उपकरण होनेसें गौण है. इसवास्ते सकल पुरुषार्थकी सिद्धिवास्ते क्रियाही, प्रधान कारण है. ऐसा जो उपदेश, सो क्रियानय जानना. यह नय भी, अपने मतकी सिद्धिवास्ते युक्ति कहता है. क्रियाही, प्रधान पुरुषार्थकी सिद्धिमें कारण है. क्योंकि, आगममें तीर्थंकर गणधरोंने क्रिया रहितोंका ज्ञान भी, निष्फल कहा है.
तदुक्तम् ॥
सुबहुपि सुमहीयं किं काही चरणविप्पमुक्कस ॥ अंधरस जह पलित्ता दीवसयसहस्सकोडीवि ॥
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