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पत्रिंशःस्तम्भः।
७२३ अर्थः-जो एक मान महासत्ता सामान्यविशेषादि ज्ञानोंकरके वस्तु, न मापे, न परिच्छेद करे, किंतु सामान्यविशेषादि अनेक रूपसें वस्तुको माने, सो नैगम; यह नैगमकी निरुक्ति व्युत्पत्ति है. अथवा निगम, लोकमें वसता हूं, तिर्यग्लोकमें बसता हूं, इत्यादि जो सिद्धांतोक्तही बहुत परिच्छेदरूपही निगम है, उनमें जो होवे, सो नैगम.। १।
सम्यक्प्रकारसें जो ग्रहण करा है पिंडित एक जातिको प्राप्त हुआ अर्थविषय जिसने, सो गृहितपिंडितार्थ संग्रहका वचन, संक्षेपसें तीर्थंकर गणधर कहते हैं. यह नय, सामान्यही मानता है, विशेष नही. इसवास्ते इसका वचन सामान्यार्थही है. और सामान्यरूपकरके सर्ववस्तुको क्रोडीकरता है, अर्थात् सामान्यज्ञान विषय करता है. । २।।
वच्चइइत्यादि-चयनं चयः' पिंडरूप होना, सो चय है. 'निराधिक्येन' अधिक जो चय सो कहिये निश्चय. ऐसा सामान्य है. सो, सामान्य, गया है जिससें, सो विनिश्चय, अर्थात् सामान्याभाव, तिसके अर्थे जो सदा प्रवर्ते, सो व्यवहारनय है. यह व्यवहार, सर्वद्रव्यमें प्रवर्ते है. क्योंकि, जगत्में घट स्तंभ कमलप्रमुख विशेषही प्रायः जलहरणादि क्रियामें काम आते हैं, परंतु तिससे अतिरिक सामान्य नहीं; इसवास्ते यह नय सामान्य नही मानता है. इसबास्तेही लोकव्यवहारप्रधान जो नय, सोव्यवहारनय.। अथवा विशेषकरके जो निश्चय, विनिश्चय, गोपालस्त्रीवालकादि भी जिस अर्थको जानते हैं, तिस अर्थमें जोप्रवर्ते, सो व्यवहारनय है. यद्यपि निश्चयसें घटादिवस्तु. योंमें पांच (५) वर्ण, दो (२) गंध, पांच (५) रस, आठ (८)स्पर्श, है; तो भी, गोपालांगनादि जिसमें जिस वर्णादिककी अधिकता देखते हैं, तिसही नी. लादि वर्णवाली वस्तु कहते हैं; शेष नहीं मानते हैं. इतिव्यवहारनय ।३। ___ वर्तमान कालमें जो वस्तु होवे, तिसको ग्रहण करनेका शील है जिसका, सो प्रत्युत्पन्नग्राही ऋजुसूत्रनय है. सो, अतीत अनागतको कुटिल जानके त्याग देता है, और ऋजु सरल वर्तमानकालभावीवस्तुको जो माने, सो ऋजुसूत्रनय, अतीत अनागत दोनों, नष्ट अनुत्पन्न होनेसें असत् है. और असत्का जो मानना है, सोही कुटिलता है, इस
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