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षत्रिंशःस्तम्भः। भावार्थ:-क्षेत्रप्रदेशोंसें द्रव्य अनंतगुणा है, द्रव्यसें भाव संख्यातगुणा, वा, असंख्यातगुणा है; इत्यादि नंदिटीकामें विस्तारसहित कहा है. इसवास्ते द्रव्यपर्यायोंका स्वरूपविवक्षासे भिन्न होनेसें, नय भी दो तरेके है. यद्यपि दोनों नय, परस्पर मिलते भी है, तो भी, पृथक्भावको नही त्यागते हैं. इनका स्वभावभेद आगे कहेंगे.
प्रश्नः-द्रव्यपर्यायसे व्यतिरिक्त सामान्य विशेष है, तो फिर, सामान्यार्थिक, और विशेषार्थिक, नय क्यों नहीं ?
उत्तरः-द्रव्यपर्यायसे व्यतिरिक्त सामान्यविशेष है नहीं, इसवास्ते सामान्यार्थिक विशेषार्थिक नय नहीं कहे.
तद्यथा । तहां प्रसंगसें सामान्यका स्वरूप लिखते हैं. सामान्य दो प्रकारके हैं. तिर्यक्सामान्य (१) और ऊर्द्धतासामान्य (२) प्रथमका लक्षण कहते हैं। “ ॥ प्रतिव्यक्तितुल्यापरिणतिः तिर्यक्सामान्यं यथा शबलशाबलेयपिंडेषु गोत्वमिति ॥” गवादिकमें गोत्वादिस्वरूप तुल्यपरिणतिरूप तिर्यक्सामान्य है; उदाहरण जैसें, तिसही जातिवाला यह गोपिंड है, अथवा गोसदृश गवय है.॥१॥ दूसरे सामान्यका लक्षण.। “॥ पूर्वापरपरिणामसाधारणद्रव्यमूर्द्धतासामान्यम् यथा कटककंकणाद्यनुगामिकांचनमिति ॥" उर्द्धतासामान्य सो है, जो, पूर्वापरविवर्त्तव्यापि मृदादिद्रव्य यह त्रिकालगामि है.
तदुक्तं ॥
“॥ पूर्वापरपर्याययोरनुगतमेकं द्रवति तांस्तान् पर्यायान् गच्छतीति व्युत्पत्त्या त्रिकालानुयायी यो वस्त्वंशस्तदूर्द्धतासामान्यमित्यभिधीयते॥"
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