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षट्त्रिंशः स्तम्भः ।
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तीर्थीयोंके मत में एकांत नित्यअनित्यादिके कथन करनेवाले वाक्य है.
इति. ॥
वे नय, विस्तारविवक्षा में अनेक प्रकारके हैं. क्योंकि, नानावस्तुमें अनंत अंशोंके एकएक अंशको कथन करनेवाले जे वक्ताके उपन्यास है, वे सर्व, नय हैं. ।
यदुक्तं सम्मतौ अनुयोगद्वारवृत्तौ च ॥
जावइया वयणपहा तावइया चेव हुंति नयवाया ॥ जावइया नयवाया तावइया चेव परसमया ॥ १ ॥
अर्थ :- जितने वचनके पथ - रस्ते हैं, उतनेही नयोंके वचन हैं, और जितने नयोंके वचन है, उतनेही परमत हैं, एकांत माननेसें. इस वास्ते विस्तारसें सर्व नयों के स्वरूप लिख नही सकते हैं, संक्षेपसें लिखते हैं. सो, पूर्वोक्तस्वरूप नय, दो तरेंके हैं. द्रव्यार्थिकनय ( १ ), और पर्यायार्थिकनय ( २ )
यदुक्तं ॥
णिच्छयववहारणया मूलिमभेदा णयाण सवाणं ॥ णिच्छयसाहणहेऊ व पज्जत्थिया मुणह ॥ १ ॥
दव
अर्थः- निश्चयनय, और व्यवहारनय, येह सर्व नयोंके मूल भेद हैंऔर निश्चयनय के साधनहेतु, द्रव्यार्थिक, और पर्यायार्थिक, जानो. इति. ॥ इनमें पूर्वोक्त द्रव्यही अर्थ प्रयोजन है, जिसका, सो द्रव्यार्थिक. उसके युक्तिकल्पनासें दश भेद हैं.
तथाहि ॥
अन्वयद्रव्यार्थिक- जो एकस्वभाव कहिये; जैसें एकही द्रव्य गुणपर्यायस्वभाव कहिये, अर्थात् गुणपर्यायके विषे द्रव्यका अन्वय है, जैसें द्रव्यके जाननेसें द्रव्यार्थादेशसें तदनुगत सर्वगुणपर्याय जाने कहिये; जैसें सामान्यप्रत्यासत्ति परवादीकी सर्वव्यक्ति जानी कहै, तैसें यहां जानना. यह अन्वयव्यार्थिकः । १ ।
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