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षत्रिंशःस्तम्भः।
७०७ इससे विपरीत, अर्थात् उपाधिजनित बहिर्भावपरिणमन योग्यता, सो अशुखस्वभाव.।९। नियमितस्वभावका जो अन्यत्र अपरस्थानमें उपचार करना सो, उपचरितखभाव. । १०। उपचरितस्वभाव दो प्रकारका है; एक कर्मजन्य, और दूसरा स्वाभाविक. तहां पुद्गलसंबंधसें जीवको मूर्तपणा, और अचेतनपणा, जो कहते हैं, सो — गौर्वाहीकः' इसतरें उपचार है, सो कर्मजनित है; इसवास्ते कर्म, सोही उपचरितस्वभाव है. और दूसरा जैसे सिद्धात्माको परज्ञातृत्व, परदर्शकत्व, मानना. . . अब जो कोई वादी इन पूर्वोक्त स्वभावोंको न माने, तिसके मतमें जो दूषण आवे है सो, लिखते हैं. जेकर एकांत अस्तिस्वभावही माने, तब तो, नास्तिस्वभाव, न मानेगा, तब तो, सर्वपदार्थकी भिन्नभिन्न नियत स्वरूपावस्था नही होवेगी; तब संकरादि दूषण होवेंगे; जगत् एकरूप होजायगा. और सो तो, सर्वशास्त्रव्यवहारविरुद्ध है. इसवास्ते परपदार्थकी अपेक्षा, नास्तिखभाव भी, माननाही पडेगा; ।१। जेकर एकांत नास्तिखभाव माने, तब सर्वजगत् शून्य सिद्ध होवेगा.।२।
जेकर एकांत नित्यही मानेगा, तब नित्यको एकरूप होनेसें अर्थक्रियाकारित्वका अभाव होवेगा, अर्थक्रियाकारित्वके अभावसें द्रव्यकाही अभाव होवेगा.।३।
जेकर एकांत अनित्य मानेगा, तब द्रव्य निरन्वय नाश होवेगा; तब तो, पूर्वोक्तही दूषण होगा.।४।
जेकर एकांत एक स्वभाव माने, तब विशेषका अभाव होवेगा; जब विशेषका अभाव होवेगा, तब अनेकस्वभावविना मूलसत्तारूप सामा. न्यका भी अभाव होवेगा.
तदुक्तं ॥
निर्विशेषं सामान्यं भवेत् खरविषाणवत्॥
सामान्यरहितत्वाच्च विशेषस्तद्वदेवहि ॥ १॥ भाषार्थ:-विशेषविना सामान्य गर्दभके सींगसमान असद्रूप है, और सामान्यविना विशेष भी असद्रूप है, खरशृंगवत्. ॥५॥ जेकर एकांत
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