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षट्त्रिंशःस्तम्भः। तिसवास्ते मिथ्या है. इस अनुमानसें प्रपंचमिथ्यारूप है, और एक ब्रह्मही, पारमार्थिक सद्रूप है.
उत्तरपक्षः-हे पूर्वपक्षिन् ! इस अनुमानके कहनेसें तुमारा तर्कवितर्ककार्कश्यसूचन नहीं होता है । तथाहि । यह जो प्रपंच तुमने मिथ्यारूप माना है, सो मिथ्या, तीन तरेंका होता है. अत्यंत असद्रूप (१) है तो, कुच्छ और और प्रतीत होवे और तरें (२) और तीसरा अनिर्वाच्य (३) इन तीनोंमेंसें कौनसा मिथ्यारूप प्रपंचको माना है ?
पूर्वपक्षः-इन पूर्वोक्त तीनों पक्षोंमेंसें प्रथमके दो पक्ष तो हमको स्वीकारही नहीं है, इसवास्ते हम तो तीसरा अनिर्वाच्य पक्ष मानते हैं, सो यह प्रपंच अनिर्वाच्य मिथ्यारूप है.
उत्तरपक्षः-प्रथम तो तुम यह कहो कि, अनिर्वाच्य क्या वस्तु है ? एतावता तुम अनिर्वाच्य किसको कहते हो? क्या वस्तुका कहनेवाला शब्द नहीं है! वा शब्दका निमित्त नहीं है ? वा निःस्वभावत्व है ? प्रथम विकल्प तो कल्पनाकरनेयोग्यही नहीं है. क्योंकि, यह सरल है, यह रसाल है, ऐसा शब्द तो प्रत्यक्ष सिद्ध है. अथ दूसरा पक्ष है तो, शब्दका निमित्तज्ञान नहीं है ? वा पदार्थ नहीं है? प्रथम पक्ष तो समीचीन नहीं है, सरल रसाल ताल तमाल प्रमुखका ज्ञान प्राणीप्राणी प्रति प्रतीत होनेसें, देखनेवाले सर्व जीव जानते हैं; जो सरल रसाल ताल तमाल प्रमुखका ज्ञान हमको है. अथ दूसरा पक्ष तो, पदार्थ, भावरूप नही है ? वा अभावरूप नहीं है ? प्रथम कल्पनामें तो, असत्रख्याति अभ्युपगमप्रसंग है, अर्थात् जेकर कहोगे पदार्थ भावरूप नहीं है, और प्रतीत होता है तो, तुमको असख्याति माननी पडी; और अद्वैतवादीयोंके म. तमें असत्ख्याति माननी महादूषण है. अथ दूसरा पक्ष, जो पदार्थ, अभावरूप नही तो भावरूप सिद्ध हुआ. तब तो, सत्ख्याति माननी पडी. और जब अद्वैतवादमत अंगीकार कीया, और सत्रख्याति माननी पडी, तब तो सत्रख्यातिके माननेसें अद्वैतमतकी जडको कूहाडेसें काटा. कदापि अद्वैतमत नहीं सिद्ध होगा.
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