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पत्रिंशःस्तम्भः।
६७७ उत्पत्तिके हुए, पटादि आकाशकी उत्पत्तिही है, तिस समयमें विनाशके भी देखनेसें. और ऐसा भी नहीं है कि, विनाशके हुए, विनाशही है, उत्पत्तिका भी तिस समयमें उपलंभ होनेसें. और स्थितिके हुए, स्थितिही है, ऐसा भी नहीं है, विनाश, उत्पाद, दोनोंको भी तिस कालमें देखनेसें.
पूर्वपक्षः-बंधके हुए मोक्ष नही, और मोक्षके हुए बंध नही होवेगा, एक आत्मामें बंध मोक्ष दोनोंका विरोध होनेसें.
उत्तरपक्षः-ऐसा मानना ठीक नहीं है. क्योंकि, आकाशमें भी एक घटके संबंध हुए, घटांतरके मोक्षके अभावका प्रसंग होनेसें. और एक घटके विश्लेष हुए, घंटातरके विश्लेषका प्रसंग होनेसें.
पूर्वपक्षः-प्रदेशभेदउपचारसें, पूर्वोक्त प्रसंग नहीं है.
उत्तरपक्षः-तब तो आत्मामें भी तिसका प्रसंग नहीं है. आकाशके प्रदेशभेद माने हुए, एक जीवका भी प्रदेशभेद होवो; ऐसें कहांसें जीवतत्व प्रदेशभेद व्यवस्था, जिससे आत्मा व्यापक होवे ?
पूर्वपक्षः-आत्माके व्यापकत्वके अभाव हुए, दिग्देशांतरवर्ति परमाणुओंके साथ युगपत्संयोंगके अभावसे, आद्यकर्मका अभाव है; तिसके अभावसे अंत्यसंयोगका अभाव है, तिस निमित्तक शरीरका अभाव
और तिसकरके उसके संबंधका अभाव है. तब तो विनाही उपायके सिद्ध हुआ, सर्वदा सर्व जीवोको मोक्ष होंवे. अथवा होवे जैसे तैसेंकरी शरीरकी उत्पत्ति, तो भी, सावयव शरीरके प्रतिअवयवमें प्रवेश करता हुआ आत्मा, सावयव होवेगा; तैसें हुए इस आत्माको पटादिवत् कार्यत्वका प्रसंग है. और कार्यत्वके हुए, इस आत्माके विजातिकारण आरंभक है, वा सजातिकारण आरंभक है ? पूर्वपक्ष तो नही. क्योंकि, विजातियोंको अनारंभक होनेसें. दूसरा पक्ष भी नही. जिसवास्ते सजातिपणा, उनको आत्मत्वअभिसंबंधसेंही होवे हैं, तैसें हुए एक आत्माके अनेक आत्मा, आरंभक ऐसे सिद्ध हुआ, यह तो, अयुक्त है. क्योंकि, एक शरीरमें आत्माके आरंभक, अनेक आत्माका असंभव होनेसें. और संभवके हुए भी स्मरणकी अनुपपत्ति है. क्योंकि, नही अन्यने देखा हुआ,
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