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तत्त्वनिर्णयप्रासादतब अवक्तव्य कैसें हुए? और कहता थकां तिसही तरें अवधारते हैं, वा नही भी अवधारते हैं ? तथा तिनके अवधारणका फल सम्यग्दर्शन, है, वा नही? ऐसेंही उससे विपरीत असम्यग्दर्शन भी है, वा नहीं? ऐसें कहता हुआ मत्तोन्मत्तपक्षकीतरे होवेगा, परंतु प्रवृत्तियोग्य नही होवेगा. स्वर्गमोक्षपक्षमें भी भावपक्षमें अभाव, नित्यपक्षमें अनित्य, ऐसें अनवधारित वस्तुयोंमें प्रवृत्ति नहीं हो सकती है. अनादिसिद्ध जीवादिपदार्थोंके निश्चितरूपोंको अनिश्चितरूपका प्रसंग है. ऐसें जीवादिपदार्थोंमें एकधमर्मीमें सत्व असत्व विरुद्ध धर्मोका संभव नही. क्योंकि, जेकर असत् है तो, सत् नही होवेंगे. इसवास्ते आर्हत्मत ठीक नही. इस कहनेसें एक अनेक, नित्य अनित्य,व्यतिरिक्त अव्यतिरिक्तादि अनेकांतका खंडन जानना.
॥ इतिव्यासाभिप्रायानुसारिशंकरकृतसप्तभंगीखंडनम् ॥ अथ व्यासजी, और शंकरस्वामीके खंडनका खंडन लिखते हैं:-व्यासजी, और शंकरखामी, जैनमतके तत्त्वके जाननेवाले नही थे; नही तो, ऐसे अयौक्तिक असमंजस वचनोंसें सप्तभंगीअनेकांतवादका खंडन कदापि नही लिखते; इनोंके पूर्वोक्त खंडनको देखके, सर्व विद्वान् जैनी, उपहास्य करते हैं, और करेंगे. क्योंकि, जिसतरें जैनी पदार्थोंका स्वरूप स्याद्वाद सप्तभंगीसें मानते हैं, उनके माननेमुजब जेकर खंडन करते, तब तो, जैनीयोंके मनमें भी चमत्कार उत्पन्न होता; परंतु व्यासजी, और शंकरस्वामीने तो, भैसकी जगे, भैंसे (झोटे-पाडे)को दोह गेरा! इस खंडनसे तो, जैनीयोंका मत किंचित्मात्र भी खंडन नही होता है. क्योंकि, जिसतरें जैनी सप्तभंगीका खरूप मानते हैं, सो उपर लिख आये हैं उससे जानना.
अथ भव्य जीवोंके बोधवास्ते किंचित्मात्र,शंकरखामीकी उन्मत्तता,प्रकट करते हैं. शंकरखामी लिखते हैं कि, “जैनी जीवादि सात पदार्थ मानते हैं. तथा संक्षेपसे जीव, और अजीव, दो पदार्थ मानते हैं. और पूर्वोक्त सात पदार्थोंको जीवाजीवके अंतर्भूत मानते हैं. और पूर्वोक्त जीव अजीवकाही
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