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पंचत्रिंशःस्तम्भः।
६४३ (शराब) यथा इच्छासें आप पीपीकर, कांतायोंको भी पिलाते हुए; मंदाक्षर थोडेसें पसीनेयुक्त मनोहर भाषण है जिसमें, निभृतरोमांचित सीत्कारयुक्त कमलकीतरें सुगंधित प्रसरणशील मन्मथ है जहां, ऐसे कांतामुखको पीके शंकर राजा, कृत्यकृत्य होते हुये; आवरणरहित जघन है जिसमें, दश्या है तले (नीचे)का होठ जिसमें, अतिशयकरके मर्दन करे हैं स्तनयुगल जिसमें, रतिकूजितशब्द है जिसमें, पाया है उत्साह जिसमें, पाया है क्रियाभेद संवेशन वा जिसमें, नृत्य कर रहे हैं गात्र जिसमें, गइ है इतरकी भावना जिसमें, ऐसा वचनके अगोचर, अतिशायिक सुख, उत्पन्न हुआ है; वहां भी, ब्रह्मानंदही, अनुभव करते रहें, सोही दिखाते हैं. श्रद्धा प्रीति रति धृति कीर्ति कामसें उत्पन्न हुइ विमलामोदिनी घोरा मदनोत्पादिनी मदामोहिनी दीपनी वशकरी रंजनी इतनी
नावासमा कामकी कला स्त्रीके अंगोंमें सर्व है, और स्त्रीके अंगोंमें अमुक २ तिथिमें
२ मदन वास करता है, ऐसी कामकी कलामें जानकार मनोज्ञ है चेष्टा जिसकी, सकल विषयों में व्यापारयुक्त इंद्रियां है जिसकी, सदा प्रमदा उत्तम करी है जो कुचलक्षणगुरुकी उपासना तिसकरके अत्यंत भला निवृत है अंतःकरण जिसका, सो निरर्गल निराबाध निधुवन मैथुन तिसमें जो प्रधान ब्रह्मानंद तिसको भोगते हुए. सो शंकररूप राजा पूर्वकीतरें राणीयोंके साथ भोगोंको भोगता हुआ, जैसें वात्स्यायनने कामशास्त्रमें मैथुन सेवनेकी विधि लिखी है, तैसें शंकरस्वामी मैथुन सेवते हुए. सो कामशास्त्र स्वयमेव साक्षात् देखते हुये, वात्स्यायनके कहे सूत्र, और उनकी भाष्यको सम्यग् देखके, एक अभिनवार्थ गर्भित निबंध कामशास्त्र, नृपवेशधारी शंकरस्वामीने रचा. शंकरस्वामी तो, विलासिनीयोंसें उक्त रीतिसें भोग करते रहे.
इधर शंकरस्वामीके शिष्य, आपसमें कहने लगे कि, गुरुजीने एक मासकी अवधि कीथी, सो भी पांच छ दिन अधिक हो गये है. तो भी, गुरु अपने शरीरमें आकर हमारी अनुकंपा नही करते हैं. हम क्या करे ? कहां ढूंढें ? कहां जावें ? ऐसी चिंता करके किसी एकको शरीरका रक्षक
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