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त्रयस्त्रिंशःस्तम्भः। __ भाषार्थः-मस्तक दाढी मूंछका तो लोच करा हुआ, मोर पीछी धारण करी हुई, और कमंडलू हाथमें, अषःकेशोंका रखना, यह जिनमुद्रा सामान्य प्रकारसें है. वाहरे ! दिनमें राह भूलेहुये मेरे दिगंबर भाइयो! क्या तीर्थंकर भी शिरदाढीमूंछका लोच करते थे ? और पीछी कमंडलू रखते थे, जिससे तुमने जिनमुद्राका ऐसा स्वरूप लिखा है ? इससे यह सिद्ध होता है कि, तुम जिनमुद्राका स्वरूप भी यथार्थ नहीं जानते हो. तथा प्रवचनसारकी वृत्तिसें, और बोधपाहुडकी वृत्ति सिद्ध होता है कि, पीछी कमंडलूसें अन्य भी उपधि साधु रख लेवें. क्योंकि, बोध पाहुडवृत्तिमें पीछी कमंडलू रखना जिनमुद्रा कही है, और प्रवचनसारवृत्तिमें बहिरंगयतिलिंगका जिनेश्वरको अभाव कहा है; तो, वो बहिरंगयतिलिंग कौनसा है, जो जिनेश्वरमें नहीं है ? ॥
तथा योगेंद्रदेवविरचित परमात्मप्रकाशकी टीकामें भी साधुको उपकरण ग्रहण करने लिखे हैं.। तथा च तत्पाठो यथा ॥
“परमोपेक्षासंयमाभावे तु वीतरागशुद्धात्मानुभूतिभावसंयमरक्षणार्थ विशिष्टसंहननादिशक्त्यभावे सति यद्यपि तपःपर्यायशरीरसहकारिभूतमन्नपानसंयमशौचज्ञानोपकरणतणमयप्रावरणादिकं किमपि गृह्णाति तथापि ममत्वं न करोतीति॥” तथाचोक्तं ॥
रम्येषु वस्तुवनितादिषु वीतमोहो। मुह्येदृथा किमिति संयमसाधनेषु ॥ धीमान् किमामयभयात् परिहत्य भुक्तिं ।
पीत्वौषधं व्रजति जातुचिदप्यजीर्णम् ॥१॥ भाषार्थ:-परमोपेक्षासंयमके अभाव हुए, वीतराग शुद्ध आत्माके अनुभव भाव संयमकी रक्षा करनेवास्ते, विशिष्टसंहननआदि शक्तिके अभाव हुए, यद्यपि तप, पर्याय, और शरीरके सहकारिभृत, अर्थात् साहाय्य देनेवाले,
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