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त्रयस्त्रिंशःस्तम्भः।
५८७ और तुमने तो पुरुषाकार प्रतिमाके वृषणोंके ऊपर ऐसा लिंगाकार बनाया है कि, जिसको जो कोइ देखेगा, तिसकोही अच्छा नहीं लगेगा; तो फिर, जिनवरसमान तुमारा जिनविंव किसतरें सिद्ध हुआ ? । __ और जो तुम जिनसमान जिनका बिंब मानते हो, तब तो, जिनबिंबके भमूह ( भाफण ) श्याम करने चाहिये; आंखें खुणेसें लाल, डौले श्वेत, आना काला, कीकी अतिकाली, ऐसी बनानी चाहिये; दाडीमूंछ काली बनानी चाहिये; हाथपगके तले रक्त (लाल) करने चाहिये; जेकर ऐसें न करोगे, तब तो, जिनवरसमान तुमारा जिनबिंब कदापि सिद्ध नही होवेगा.
तथा जैसा समवसरणमें जिनेश्वरका आकार है, तैसाही आकार तुम प्रतिमाका मानते हो; तब तो, पार्श्वनाथ भगवंतके शिरपर करा हुआ धरणेद्रका सर्पाकार छत्र क्यों बनाते, और मानते हों ? क्योंकि, धरणेंद्रने तो छद्मस्थावस्थामें खडे पार्श्वनाथ भगवंतके शिरपर छत्र फणाकारका करा था, नतु समवसरणमें बैठोंके. और जिस जिनेंद्रको बैठें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ, तिसका बिंब खडे योग क्यों बनाते हो ? और जिनवरका रूप तो, लक्षभूषणोंके आकारवाला देदीप्यमान था; और तुमारी प्रतिमाका तो, तैसा रूप है नही. तो फिर, जिनस्वरूपका स्मरण तुमको कैसे हो सकता है ? और पार्श्वनाथ भगवंतका वर्ण तो, प्रियंगुवर्ण-मोरकी ग्रीवासमान था; और तुम तो श्याम, रक्त, पीत, श्वेतवर्णकी प्रतिमा बनाते हो. तो फिर, तदनुरूप कैसे सिद्ध हुई ? इसवास्ते कटक कुंडल मुकुटादि आभरणोंसंयुक्त, और धूप दीप नैवेद्य पुष्प फलादिसें जिनराजका पूजन करना चाहिये. क्योंकि दिगंबराम्नायके शास्त्रों में भी ऐसेही पूजाविधान लिखा है; सो यत्किंचित् लिखते हैं.
श्रीउमास्वामीने श्रावकाचार किया है, तिसमें पूजा प्रकरणमें ऐसे लिखा है.॥ स्नानविलेपनविभूषितपुष्पवासदीपैः प्रधूपफलतंदुलपत्रपूगैः ॥ नैवेद्यवारिवसनैश्चमरातपत्रवादित्रगीतन्तस्वस्तिककोषदूर्वा ॥१॥
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