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त्रयस्त्रिंशःस्तम्भः।
૬૮૪ अथ कुछक दिगंबर श्वेतांबरके मतका स्वरूप, प्रश्नोत्तररूप करके लिखते हैं. क्योंकि, पूर्वोक्त कथन प्रायः चर्चाचंचूही समझ सकेंगे, और यह प्रश्नोत्तररूपकथन तो, थोडी समझवाले भी समझेंगे. ॥“प्रश्न-दिगंबर" ॥ " उत्तर-श्वेतांबर"॥
प्रश्नः-भगवान् तो भुवनतिलकरूप है, इसवास्ते तिनको तिलक नही करना चाहिये.
उत्तरः-यह कहना अनभिज्ञोंका है. क्योंकि, जैसे भगवान् तीन लोकके छत्ररूप है, तो भी, तिनके मस्तकोपरि छत्र धारण करनेमें आवे हैं; तैसेंही तिलक भी जाणना. तथा तुमारे संस्कृत हरिवंशपुराणमें भी, भगवंतको तिलक करना लिखा है. तथाहि ॥
त्रैलोक्यतिलकस्यास्य ललाटे तिलकं महत् ॥
अचीकरन्मुदेंद्राणी शुभाचारप्रसिद्धये ॥१॥ भावार्थः-तीन लोकके तिलक इस भगवंतके ललाटमें खुशी होके इंद्राणी शुभाचारकी प्रसिद्धिवास्ते तिलक करती हुई.।१।।
प्रश्नः-लेपरहित, और रागद्वेषरहित, अरिहंतको विलेपन किसवास्ते करते हो? उत्तरः-हरिवंशपुराणमेंही लिखा है. यतः॥
जिनेंद्रांगमथेंद्राणी दिव्यामोदिविलेपनैः॥
अन्वलिप्यत भक्त्यासौ कर्मलेपविघातनम् ॥१॥ भावार्थ:-जिनेंद्रके अंगको अथ इंद्राणी प्रधान आनंद देनेवाले विले. पनोंकरके भक्तिसें लेपन करती हुई. कैसा विलेपन? कर्मलेपका घातक।१।
और पाहुडवृत्तिमें पंचामृतस्नात्र करना भी लिखा है. और जिनवर तो, त्रिभुवनके छत्र है तो, तुम तिनके ऊपर छत्र क्यों करते हो ? जैसे भगवान् त्रिभुवनतिलक है, तैसेंही त्रिभुवनछत्र भी है; तब तिलक नही करना, और छत्र करना, यह कैसा अन्याय है!
प्रश्नः-भगवंतको तुम आभरण किसवास्ते चडाते हो?
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