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त्रयस्त्रिंशास्तम्भः।
५६७ क्रीडामात्र है. क्या ऐसे हुए, कवल आहारका, व्यापक १, कारण २, कार्य ३, सहचरादिका सर्वज्ञताके साथ विरोध है ? और सो विरोध परस्पर परिहाररूप है, या सहानवस्थानरूप है ? याद प्रथम पक्ष मानोगे तब तो, तुम्हारे भी ज्ञानके साथ कवल आहारके व्यापकादिकोंका परस्पर परिहारस्वरूप विरोधके सद्भाव होनेसें, तुम (दिगंबरों) को भी कवल आहारका अभाव होवेगा. अहो तुमारा पुरुषकार !! जिसवास्ते अपने कहनेसेंही पराभवको प्राप्त हुए हों. और दूसरे पक्षको माने तब तो, कवल आहारका व्यापक, हानिको नहीं प्राप्त होता है. क्योंकि, कवल आहारका व्यापक तो, शक्तिविशेषके वससे उदरकंदरारूप कोनेमें प्रक्षेप करना है, सो तो, सर्वज्ञके हुए अतिशयकरके संभव करिये हैं. क्योंकि, वीर्यांतरायकर्म समूल उन्मूलन करनेसें; तहां तिस आहारके क्षेप करने वाली शक्तिविशेषका संभव होनेसें.
और आहारका कारण भी वाह्यरूप, विरोधको प्राप्त होता है ? वा अभ्यंतररूप कारण, विरोधको प्राप्त होता है ? बाह्यरूपकारण भी खानेयोग्य वस्तु १, वा तिस वस्तुके उपहारहेतु पात्रादिक २, वा औदारिक शरीर ३? प्रथम तो नहीं. क्योंकि, जो, केवलज्ञान, खानेयोग्य पुद्गलोंके साथ विरोधि होवे, तब तो, अस्मदादिकोंका ज्ञान भी तैसाही होना चाहिये. ऐसा नहीं होता है कि, सूर्यकी किरणोंके साथ जो अंधकारका समूह, विरोधी हैं; सो, प्रदीपालोककेसाथ विरोधी न होवे. तैसें हुए, हमारे भी, खानेकी वस्तु हाथ में लेनेसें,. तिसके ज्ञानके उत्पन्न होतेही, तिसका अभाव होना चाहिए. बहुत आश्चर्यकारि नतनही तुम्हारा कोई तत्वालोक कौशल है, अपने आपकोभी आहारकी अपेक्षा नहीं है !!
पात्रादिपक्ष भी ठीक नहीं है. अहंतभगवंतोंको पाणि (हस्त) पात्र होनेसें; और इतर केवलियोंको स्वरूपसेंही पात्रविरोध है ? वा, ममताका कारण होनेसें है ? तहां प्रथम पक्ष तो अनंतरपक्षके उत्तरसेंही खंडित हो गया. और दूसरा पक्ष भी है नहीं, केवलीको निर्मोह होने करके, तिनको (केवलीको) पात्रादिविषे ममकारके न होनेसें. ऐसें भी न कहना कि, पात्रादिकके हुए, अवश्य ममकार होना चाहिये. क्योंकि,
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