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तत्त्वनिर्णयप्रासाद__ जेकर जैनग्रंथोंका लेख संपूर्ण विरोधी होवे, अथवा इसमें लिखे संवत् मिति ऊपरसें विरोधि अनुमान होता होवे तो, ऐसे साधनों ऊपर आधार राखनेवाली सर्व कल्पनाओंको शंकासहित माननी अपनेको ठीक है; परंतु फिर बुद्धलोकोंके बलकि उत्तरके बुद्धलोकोंके ग्रंथोंसे इस बाबतमें जैनग्रंथोंका वर्ताव कुछ भी विशेष नही मालुम होता है, तब तो किसवास्ते खुद जैनमतके शास्त्रोंकी बातें अनुमानसें मानने में आती हैं? तिससें जैनमतके पुस्तकोंके कथनसे जुदा (अन्यही ) समयकाल और मूल जैनमतको अर्पित (आरोप ) करनेको इतने सर्व ग्रंथकारोंकी प्रवृत्ति हुई है. इस प्रवृत्तिका प्रकट कारण तो यूरोपीयन पंडितोंको यह मालुम होता है कि, जैन और बुद्धमतमें कितनीक ऊपरऊपरकी व्यवहारिक वातोंका मिलतापणा देखके ऐसा धारण करने में आया है कि, जो ये दोनों पंथोंमें इतना मिलतापणा है, तो एकपंथ दूसरेसें स्वतंत्र (अन्य) होना नहीं चाहिये; परंतु एकपंथको अवश्य दूसरे पंथमेंसें निकलना चाहिये. इस आनुमानिक अभिप्रायसें बहुत यूरोपीयन परीक्षकोंकी बुद्धि लुप्त होगई है, अब भी लुप्तही होरही है. ऐसें भूलसें भरे हुए अभिप्रायको असत्य करनेवास्ते, और जैनोंके पवित्र पुस्तक जे सत्यता और प्रतिष्ठाके पात्र हैं, तिनकी सत्यता और प्रतिष्ठा स्थापन करनेवास्ते, मैं, अगले पत्रोंमें प्रयत्न करूंगा. जैनसंप्रदायका प्रवर्त्तावनेवाला, अथवा सर्वसें पीछेका तीर्थंकर महावीर ( स्वामी ), तिस विषयतक हकीकातसें लेके हम अपनी चरचाका प्रारंभ करते हैं-इत्यादि बहुत लेख लिखके पीछे लिखते हैं कि-बुद्ध तहांसें वैशालीमें गया, जहां लच्छवीयोंका अग्रेश्वरी जो निर्मथोंका (जैनके साधुयोंका ) श्रावक था, तिसको बुद्धने प्रतिबोध कराइत्यादि लिखके फेर लिखते हैं कि-बुद्धमतकेही शास्त्रमें लिखा है कि, बुद्धका प्रतिस्पर्द्धि (शत्रु), और जैनसाधु अथवा निग्रंथोंके अग्रेश्वरीतरीके महावीर (स्वामी) को तिनका प्रसिद्ध नाम नातधुत्तकरके लिखा है. इनका गोत्र बुद्धलोकोंने अग्निवैशायन लिखा है, सो तिनका लिखना असत्य है. क्योंकि, यह गोत्र तो, इनके मुख्य गणधर सुधर्मा स्वामीके साथ संबंध रखता है, महावीर (स्वामी) के सर्व गणधरमेंसें यह सुधर्मा
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