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द्वात्रिंशस्तम्भः ।
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वैदिकमतवाले जैनमतको द्वेषबुद्धिसें नास्तिक कहते हैं, और महाविद्वान् परमहंस परिव्राजकजी निःपक्षपाती सद्बुद्धिवाले जैनमतकी बाबत कैला विचार रखते हैं !! इससे हे प्रियवरो ! जैनाचार्योंने जो जो वेदबाबत लेख लिखे हैं, वे सर्व यथार्थ तत्त्व के बोधवास्ते लिखे हैं, न तु द्वेषबुद्धिसें. और द्वेषयुक्त भी, मताग्रही पुरुषोंकोही मालुम होते हैं, नतु पक्षपा तरहित पुरुषोंको. ॥
पूर्वपक्ष:- जैनमत में प्राचीन व्याकरण तर्कशास्त्र नहीं है, इससें जैनमत प्राचीन नहीं है. ऐसे कितनेक कहते हैं तिसका क्या उत्तर है?
उत्तर पक्षः - संप्रतिकालमें जो पाणिनीय अष्टाध्यायी व्याकरण है, तिससें तो जैनके व्याकरण प्राचीन है. क्योंकि, पाणिनीय व्याकरणके कर्त्ता पाणिनी, नवमे नंदके समयमें हुए हैं. सो पाणिनी, अपने रचे व्याकरणमें कहते हैं, यथा - " त्रिप्रभृतिषु शाकटायनस्य" और शाकटायनके कर्त्ता, तथा न्यास के कर्ता, शाकटायन और न्यासकी आदिमें मंगलाचरणमें ऐसें लिखते हैं.
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" ॥ शाकटायनोपि यपयापनाय यतिग्रामाग्रणीः स्वोपज्ञशब्दानुशासनवृत्तावादौ भगवतः स्तुतिमेवमाह । श्रीवीरममृतं ज्योतिर्नत्वादिसर्ववेदसाम् । अत्र चन्यासकृता व्याख्या । सर्ववेदसां सर्वज्ञानानां स्वपरदर्शन संबंधिसकलशास्वानुगतपरिज्ञानानामादिप्रभवमुत्पत्तिकारणमिति यह पाठ नंदिसूत्रवृत्तिमें है।
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न्यासकी भाषाः - ( सर्ववेदसाम् ) सर्वप्रकारके ज्ञानोंका स्वपरदर्शनसंबंधी सकलशास्त्रानुगत परिज्ञानोंका ( आदिप्रभवम् - प्रथमम् ) पहिला उत्पत्तिकारण, ऐसे श्रीवीरं अर्थात् श्रीमहावीरको नमस्कार करके, कैसें श्रीमहावीरको ( अमृतज्योतिम् ) ।
इससे सिद्ध होता है कि, पाणिनी पहिलेके शाकटायन और न्यासकर्त्ता जैनमती थे । * तथा जैनेंद्र व्याकरण और इंद्रव्याकरण, येभी पाणिनीसें * प्रसिद्धकर्ताकी प्रस्तावना देखो.
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