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द्वात्रिंशस्तम्भः ।
यात्रासे अब मैं नैपालदेश चला हूं परंतु अब मेरी ऐसी असामान्य महती इच्छा मुझे सताय रही है कि किसी प्रकार से भी एकवार आपका मेरा समागम वो परस्परसंदर्शन हो जावे तो मै कृतकर्मा होजाऊं ॥ महात्मन् हम संन्यासी है। आजतक जो पांडित्यकीर्त्तिलाभद्वारा जो सभाविजयी होके राजा महाराजों में ख्यातिप्रतिपत्ति कमायके एकनाम पंडिताईका हांसल करा है । आज हम यदि एकदम आपसे मिले तो वो कमायी कीर्त्ति जाती रहेगी ये हम खूब समझते वो जानते है परंतु हठधर्म भी शुभ परिणाम शुभ आत्माकां धर्म नही । आज मैं आपके पास इतनामात्र स्वीकार कर सकता हूं कि प्राचीन धर्म परम धर्म अगर कोई सत्य धर्म रहा हो तो जैनधर्म्म था जिसकी प्रभा नाश करनेको वैदिक धर्म वो पद शास्त्र वो ग्रंथकार खडे भये थे परंतु पक्षपातशून्य हो कोई यदि वैदिक शास्त्रोंपर दृष्टि देवे तो स्पष्ट प्रतीत होगा कि वैदिक वातें कही वो लीई गई सो सब जैनशास्त्रोंसे नमूना इकठी करी है । इसमें संदेह नही कितनीक वातें ऐसी है कि जो प्रत्यक्ष विचार करेविना सिद्ध नही होती हैं । संवत् १९४८ मिती आषाढ सुदि १० ॥
पुनर्निवेदन यह है कि यदि आपकी कृपापत्री पाइ तो एकदफा मिलनेका उद्यम करूंगा । इति योगानंदस्वामी । किंवा योगजीवानंदसरस्वतिखामि ॥
मालाबंधश्लोकोयथा ॥
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योगाभोगानुगामी द्विजभजनजनिः शारदारक्तिरक्तो । दिग्जेता जेतृजेता मतिनुतिगतिभिः पूजितो जिष्णुजिह्वैः || जीयाद्दायादयात्री खलबलदलनो लोललीलस्वलज्जः । केदारौदास्यदारी विमलमधुमदोद्दामधामप्रमत्तः ॥ १ ॥
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इस श्लोक सब अर्थ जैनप्रशंसा वो श्री आत्मारामजीकी विभूतिकी प्रशंसा निकले है, प्रत्येक पुष्पोंके बीचका जो अक्षर है वो तीनवार एक अक्षरको कहना चाहिये ऐसा काव्य दश वीस श्लोक बनायके जरूर