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द्वात्रिंशस्तम्भः ।
वचनोंसें यशको प्राप्त करे हैं, वे सर्व वचन, तुमारे स्याद्वादसिद्धांत रूप समुद्र के मंद थोडेसे बिंदुनिस्संद बिंदुओंसें झरे हुए पाणीसदृश है; अर्थात् वे सर्व वचनस्याद्वादरूप महोदधिके बिंदु उडके गए हैं. ॥ इसवास्ते पूर्वोक्त वेदादिवचन जैनोंको सर्व प्रमाण हैं; परंतु जे हिंसक, और अप्रमाणिक वचन हैं, वे सर्व, जैनोंको सम्मत नहीं हैं, असर्वज्ञ मूलक होनेसें ।
यथा मनुस्मृतौ पंचमाध्याये ॥
यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा ॥ यज्ञस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ॥ ३९॥ मधुपर्के च यज्ञे च पितृदैवतकर्मणि ॥ अत्रैव पशवो हिंस्या नान्यत्रेत्यब्रवीन्मनुः ॥ ४१ ॥ एष्वर्थेषु पशून् हिंसन् वेदतत्त्वार्थविद् द्विजः ॥ आत्मानं च पशुं चैव गमयत्युत्तमां गतिम् ॥ ४२ ॥ या वेदविहिता हिंसा नियतास्मिंश्वराचरे ॥ अहिंसामेव तां विद्याद्वेदाद्धर्मो हि निर्बभौ ॥ ४४ ॥
भावार्थ:- स्वयंभु परमात्माने आप यज्ञकेवास्ते पशुयोंको उत्पन्न करे हैं, सर्व यज्ञकी भूतिकेवास्ते, तिसवास्ते, यज्ञमें जो बध है, सो, अबध है, अर्थात् वध नहीं है. । ३९ । मधुपर्क में, यज्ञमें, पितृकर्ममें, दैवतकर्ममें, इनमेंही पशुयोंको मारने; अन्यत्र नहीं. ऐसें मनुजी कहते हैं. । ४१ । इन पूर्वोक्त कार्यों में पशुयोंको मारता हुआ, वेदतत्त्वार्थका जानकार ब्राह्मण, आत्माको, और पशुको, उत्तम गतिमें प्राप्त करता है. । ४२ । जो वेदकथित हिंसा इस चराचर जगत् में नियत करी है, तिसको अहिंसाही जानो. क्योंकि, वेदसेंही धर्म दीपता है. । ४४ । इत्यादि हिंसक श्रुतियांऊपरही जैनोंका आक्षेपहै; इन आक्षेप वचनोंकोंही, कितनेक वैदिकमतवाले द्वेषयुक्त वचन कहते हैं. क्योंकि, उनको वैदिकमतके पक्षपातसें यथार्थ वचन भी, द्वेषयुक्त मालुम होते हैं. परंतु पक्षपात छोड़के
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