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तत्वनिर्णयत्रासादव्याख्याः -हे अर्हन् ! हे रुद्र! रोदयत्यसुरावतारभूतान् नृपान वैदिकयज्ञादिकानुष्ठानभ्रंसनेनेति रुद्रः । सो हे रुद्र! तुम (अर्हन् ) योग्यतासें विमोहनात्मक शास्त्ररूपी (सायकान्) बाणोंको (बिर्षि) धारण करते हो तथा (धन्व) अर्थात् पुरुषार्थरूप धनुषको भी धारण करते हो और (हे अर्हन् ) अपनी योग्यताहीसें ( यजतं) अर्थात् पूजाके साधन (विश्वरूपम् ) नानाप्रकारके मंत्रयंत्रादि धारण करते हो तथा (निष्कम् ) नानाप्रकारके स्वर्णमय भूषणोंको ( बिभर्षि ) धारण करते हो
और तैसेंही (विश्वम् अब्भुवम् ) संपूर्ण जल और पृथिवीमें जो जीतने जीव हैं तिनको (दयसे-मा हिंस्यात् सर्वा भूतानि) इत्यादि वेदवाक्यानुकूल दयाकरके पालन करते हो इसीकारणसें (हे रुद्र) (वत्) तुह्मारे समान (ओजीयो) बलवान् (नवै अस्ति ) कोई नहीं है, इससे आप हमारी भी रक्षा कीजिये-यहां जो कोई यह शंका करे कि मंत्रमें तो ( अर्हन् बिभर्षि सायकानिधन्व ) इससे मोहनादि शास्त्रोंका धारण नही पाया जाता (सायक ) पदसें तो बाणोंकाही धारण पाया जाता है सो कहना ठीक नही. क्योंकि, बुद्ध अर्हन्मतानुयायी आजकल भी बडे यत्नसे जीवरक्षा करते हैं, तो फिर, उनमें धनुषबाणका धारण करना कैसे घट सकता है? कदापि नहीं. इससे यह जानना चाहिये कि, फिर जो इनको सायक और धनुषका धारण लिखा है, सो केवल प्रशंसार्थक है, वास्तवमें नही. सो इसी आरण्यकके प्र० ५, अनु० ४ में लिखा है।
यथा ॥ ___॥अर्हन बिभर्षिसायकानिधन्वेत्याह स्तौत्येवैनमेतत्॥" यह अर्हन् भगवान्में जो (बिभर्षिसायकानिधन्व) यह लिखा है, सो (स्तैत्येवैनमेतत् ) यह केवल स्तुतिमात्रही है, वास्तवमें नहीं. इससे विमोहनात्मक शास्त्रास्त्रोंका धारण अर्थ करनाही उचित है, अन्य नहीं । इति ॥ इस मंत्रमें रुद्र, शिव, महावीर ( हनुमान् ), आदि किसीका भी अर्थ नहीं घट सकता है. क्योंकि, वे तो, सर्व शस्त्रधारीही है, और इस मंत्रमें तो, जो शस्त्रधारी नहीं है, तिसको शस्त्रधारी कहा है जिसका
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