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द्वात्रिंशस्तम्भः। स्पृष्ठा शत्रु जयं तीर्थ नत्वा रैवतकाचलम् ॥ स्नात्वा गजपदे कुंडे पुनर्जन्म न विद्यते ॥१॥ पंचाशदादौ किल मूलभूमेर्दशोईभूमेरपि विस्तरोस्य॥ उच्चत्वमष्टैव तु योजनानि मानं वदंतीह जिनेश्वराद्रेः॥२॥ सर्वज्ञः सर्वदर्शी च सर्वदेवनमस्कृतः॥ छत्रत्रयाभिसंयुक्तां पूज्या मूर्तिमसौ वहन् ॥ ३॥ आदित्यप्रमुखाः सर्वे बदांजलय इदृशं ॥ ध्यायंति भावतो नित्यं यदंघ्रियुगनीरजं ॥४॥ परमात्मानमात्मनं लसत्केवलनिर्मलम् ॥
निरंजनं निराकारं ऋषभंतु महाऋषिम् ॥५॥ [ स्कंदपुराणे] ८॥ अष्टषष्ठिष तीर्थेषु यात्रायां यत्फलं भवेत् ॥
आदिनाथस्य देवस्य स्मरणेनापि तद्भवेत्॥१॥[ नागपुराणे ] इत्यादि अनेक प्रमाणोंसे सिद्ध होता है कि, वेदादिशास्त्रोंमें बहुत गडबड हो गई है. तथा इन पूर्वोक्त प्रमाणोंसें जैनमत वेदसे पहिलेका सिद्ध होता है, वेदमें जैनतीर्थंकरादिकोंके लेख होनेसें.
और ब्राह्मणोंके माननेमजब, तथा इतिहास लिखनेवालोंकी मतिमूजब, श्रीकृष्णवासुदेवजीको हुए पांचसहस्र ( ५०००) वर्ष माने जाते हैं. तिनके समयमें व्यासजी, वैशंपायन, याज्ञवल्क्यादि, वेदसंहिताके बांधनेवाले, और शुक्लयजुर्वेद, शतपथ ब्राह्मणादि शास्त्रोंके कर्ता हुए हैं. तिन सर्व ऋषियोंमें मुख्य व्यासजी हैं, तिनोंने वेदांतमतके ब्रह्मसूत्र रचे हैं. तिसके दूसरे अध्यायके दूसरे पादके तेतीसमे सूत्रमें जैनमतकी स्याद्वादसप्तभंगीका खंडन लिखा है, सो सूत्र यह है. “नैकस्मिन्नसंभवात्" इस सूत्रका भाष्यमें शंकरस्वामीने, सप्तभंगीका खंडन लिखा है, सो, आगे लिखेंगे. जब व्यासजीके समयमें जैनमत विद्यमान था, तो फिर व्यास
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