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एकोनत्रिंशस्तम्भः।
४६७ इत्यादि महानिशीथमध्यगत वीस गाथामें कही हुई देशना देके, तीन संध्यामें चैत्यवंदन साधुवंदन करनेके अभिग्रह विशेषोंको देवे. । तदपीछे वासमत्रके सात गंधकी मुष्ठी “निथ्थारगपारगोहोहि" ऐसें कहता हुआ गुरु, तिसके शिरमें प्रक्षेप करे.। तदपीछे अक्षतसहित वासक्षेपको मंत्रे । तिस समयमें सुरभिगंध अम्लान श्वेत पुष्पोंके समूहमें ग्रंथन करी हुई मालाको जिनप्र. तिमाके पगोंऊपर स्थापन करे। सूरि खडा होके अभिमंत्रित वासांको जिनपगोंके ऊपर क्षेप करे, पास रहे साधु साध्वी श्रावक श्राविका जनको गंधाक्षत देवे.। श्राद्ध नमस्कारअनुज्ञाकेवास्ते तीन प्रदक्षिणा देवे.। तब गुरु “निथ्थारगपारगो होहि गुरुगुहिं बुदाहि " ऐसें कहे.
और जन (संघ) “पूर्णमनोरथवाला तूं हुआ है, तूं धन्य है, तूं पुण्यवान् है” ऐसें कहे.। ऐसें कहते हुए क्रमसें गुरुसंघादि वासक्षेप करे। तदपीछे फिर श्राद्ध समवसरणको तीन प्रदक्षिणा देवे । पीछे गुरुको तीन प्रदक्षिणा देवे। पीछे गुरुसहित समवसरणको तीन प्रदक्षिणा देवे। पीछे गुरुसंघसहित समवसरणको तीन प्रदक्षिणा देवे, पीछे नमस्कारादिश्रुतस्कंध अनुज्ञापनार्थ कायोत्सर्ग करे, चतुर्विंशतिस्तव चिंतन करे, पारके प्रकट लोगस्स कहे.। तदपीछे माला धारण करनेवाले तिसके स्वजनोंकेसाथ प्रतिमाके आगे जाके शक्रस्तव पढके “अणुजाणउ मे भयवं अरिहा" ऐसें कहके जिनपादऊपरि पूर्व स्थापित मालाको लेके निजबंधुके हाथमें स्थापन करके नंदिके समीप आय कर, श्राद्ध, मालाको गुरुसें मंत्रण करावे. । पीछे गुरु खडा होकर उपधानविधिका व्याख्यान करे. सो श्राद्ध भी, खडा होकर श्रवण करे. “परमपयपुरिपथि” इत्यादि मालोवृंहण गाथायोंकरके गुरु देशना करे। तदनु ॥ तत्तो जिणपडिमाए पूआदेसाओ सुरभिगंधर्ट ॥ अमिलाण सिअदामं गिव्हिअ गुरुणा सहथ्थेणं ॥१॥ तस्सोभयखंधेसुं आरोवतेण सुद्धचित्तेणं ॥ निस्संदेहं गरुणा वत्तव्यं एरिसं वयणं ॥२॥
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