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तत्त्वनिर्णयप्रासादभवसमुद्र में डूबे हुए हैं, ता. वे, किसनरेंसें दूसरे जीवोंको संसारसागरसें तार सकते हैं ? इसवातमें दृष्टांत कहते हैं। जो पुरुष आपही दरिद्री है, सो परको ईश्वर लक्ष्मीवंत करनेको समर्थ नहीं है; तैसेंही वे कुगुरु, आपही संसारमें डूबे हुए, पर अपने सेवकोंको कैसें तार सके ? ॥९॥
धर्मलक्षणमाह ॥ सत्य धर्मका स्वरूप कहते हैं. ॥ दुर्गति नरक, तिर्यंच, कुमनुष्य, कुदेवत्वादि दुर्गतिमें गिरते हुए प्राणिकी रक्षा करे, गिरने न देवे, इसवास्ते धारण करनेसें धर्म कहिये. सो, संयमादि दशप्रकार सर्वज्ञका कथन करा हुआ धर्म, पालनेवालेको मोक्षकेवास्ते होता है.। संयमादि दश प्रकार येह है. संयम जीवदया १, सत्यवचन २, अदत्तादानत्याग ३, ब्रह्मचर्य ४, परिग्रहत्याग ५, तप ६, क्षमा ७, निरहंकारता ८, • सरलता ९, निर्लोभता १०. ॥ इससे उलटा हिंसादिमय असर्वज्ञोक्त धर्म,
दुर्गतिकाही कारण है. ॥१०॥ __ अधर्मत्वमाह ॥ अपौरुषेयं० अपौरुषेय वचन, असंभवि-संभवरहित है. क्योंकि, जो वचन है, सो किसी पुरुषके बोलनेसेंही है, विना बोले नही. वच् परिभाषणे इति वचनात्. और अक्षरोत्पत्तिके आठ स्थान नियत है, सो भी पुरुषकोंही होते हैं. इसवास्ते वचन पुरुषके विना संभवे नही.। भवेद्यदि-न प्रमाणं । यहि होवे तो, वेदको प्रमाणता नही. क्योंकि, । भवेद्वाचां ह्याप्ताधीना प्रमाणता । वचनोंकी प्रमाणता, आप्त पुरुषोंके अधीन है. ॥११॥
असर्वज्ञोक्त धर्म प्रमाण नहीं यह कहते हैं. ॥ मिथ्या० मिथ्यादृष्टि असर्वज्ञोंने अपनी बुद्धिसें कहा हुआ, पशुमेध, अश्वमेध, नरमेधादि यज्ञोंके कथनसें, और अपुत्रस्य गतिर्नास्ति इत्यादि कथनसें, जीवबधादिकोंकरके जो धर्म मलीन है, सधर्म सो धर्म है, अर्थात् यज्ञादि हिंसा धर्मही है, ऐसा अजाण लोकोंमें विशेष प्रसिद्ध है. तो भी, भवभ्रमण (संसारभ्रमण) का कारण है. यथार्थ धर्मके अभावसे ॥ १२ ॥
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